Sunday 20 September 2015

कौन पढ़ेगा, कैसे पढ़ेगा - सदियों से अनसुलझे कुछ सवाल


आज सोशल मीडिया पर एक साथी ने यह स्टोरी साँझा की।

एक वृतांत यह भी।

कल शाम को उत्तर भारत के मसीही समाज के प्रमुख अगुवे को सुनने का मौका मिला। इस समय एक बड़े ओहदे पर हैं। शाम को खाने के बाद प्रार्थना सभा के दौरान साथियों, सहकर्मियों, प्रशंसकों आदि के साथ अनौपचारिक बातचीत होने लगी। वह अपने बचपन की कुछ यादें ताज़ा कर रहे थे। उन्होंने बताया कि उनका घर उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े इलाके में था, हालांकि उसे शहर कहा जाता था। उनके पिताजी मिशनरी-पादरी थे और घर से बीस किलोमीटर दूर गाँव में एक कच्चे मकान में ही उनका अधिकतर समय बीतता था। वहाँ से वह आस-पास के गाँव में प्रचार का काम तुलनात्मक दृष्टि से कुछ आसानी से कर पाते थे और वहाँ ही एक स्कूल भी चलाते थे। बात 1960 के दशक की है। उस स्कूल में ज़्यादातर बच्चे अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्ग से संबंध रखते थे। इसका प्रमुख कारण था कि 1960 तक भी, यानी आज़ादी के पंद्रह से बीस साल तक, और उससे अधिक भी, पढ़ाने वाले मास्टरों का दिलो-दिमाग, विचार-विन्यास, विश्वदृष्टि जातिवाद और छुआछूत से आज़ाद नहीं हुई थी। सरकारी स्कूलों में जाने वाले दलित और पिछड़े वर्ग के बच्चों के लिए क्लासरूम किसी मानसिक यातनागृह से कम न था। "अरे चमार, तू कहाँ पढ़ना आ गया। जा जूते बना", "अबे अहीर की औलाद, दूध दोहना सीखा के नहीं।"। मास्टरजी की उन हिदायतों और सवालों से बचते ये बच्चे अकसर मिशनरी स्कूलों में आते थे। "मेरी स्कूल की शुरुआती पढ़ाई इन्हीं बच्चों के साथ हुई," इन जनाब ने बताया। "उन गाँव के कई हिस्से थे, जैसे कि कुएँ, इत्यादि, जहाँ से इन बच्चों और उनके माँ-बाप को गुज़रने की इजाज़त नहीं थी। हमारा परिवार पढ़ा-लिखा था, लेकिन क्योंकि हमारा उठना-बैठना इन बहिष्कृत लोगों के साथ था, हमारे आने-जाने पर भी लोग नाक-भौं सिकोड़ते थे।" साथ ही इस और भी इशारा किया कि इनकी पृष्ठभूमि भी इसी प्रकार विवादास्पद थी। "लेकिन चूंकि मैं पढ़ने-लिखने में तेज़ था, मैं स्कूल के बाद उत्तर प्रदेश के एक बड़े शहर में आ गया। पढ़ने-लिखने का सिलसिला अच्छा चल निकला और एक पीएचडी विदेश से भी कर ली। लेकिन पिताजी की एक बात याद रही। जब मैं अपने कालेज में मेरिट लिस्ट में स्थान पा गया तो अपने शहर की एकमात्र लाइब्रेरी से अख़बार लाकर पिताजी को दिखाया कि मेरा नाम भी इसमें है। पिता जी मुझे बाहर एक फल के पेड़ के पास ले गए। उन्होंने पेड़ की एक डाली की ओर इशारा कर के पूछा कि वह डाली इतनी क्यों झुकी हुई है। मैंने जवाब दिया कि क्योंकि उसमें सबसे अधिक फल लगे हैं। 'जितने फलो-फूलो, उतने ही नम्र और दीन बने रहो' उनकी यह शिक्षा मैं आज तक नहीं भूला। न ही यह भूला हूँ कि मेरे पादरी पिता ने अपने जीवन के पच्चीस साल हाशिए पर के लोगों की सेवा में लगा दिए।"

मिशनरियों और पादरियों का भारतीय समाज पर क्या ऐतिहासिक प्रभाव हुआ है इस बारे में लोकप्रिय स्तर पर कुछ खास काम नहीं हुआ है। अँग्रेज़ी में इतिहासकारों ने हाल के वर्षों में काफ़ी कुछ लिखा है, लेकिन हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में इस विषय में जानकारी बहुत कम है। खैर जॉन सी बी वेबस्टर की किताब "द पास्टर टू दलित्स" (दलितों का पादरी) में उद्धृत एक रिपोर्ट को देखा जाए। यह रिपोर्ट एक भारतीय मिशनरी-पादरी बरकत-उल्लाह साहब ने लिखी है, 1927 में । हिंदी अनुवाद के बात मूल अँग्रेज़ी भी दिया जा रहा है। बरकत-उल्लाह उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम तीन दशकों में उपजे "मिशनरी हेल्प सिस्टम" (सहायता तंत्र) की आलोचना कर रहे हैं लेकिन इसमें भी उस समय की सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक ज़रूरतों का अच्छा-खासा नज़ारा हमें मिलता है।

मिशनरी अपने [दलित] लोगों के माई-बाप थे, हर मुद्दे पर उनकी मदद करते, जब भी और जहाँ भी उनकी मदद की दरकार होती। अगर कोई साहूकार मसीहियों को धमकाता तो वे मिशनरी के पास जाते, जो हमेशा अमीरों के खिलाफ़ गरीबों को बचाने को तैयार रहता था। अगर ज़मींदार अपने मसीही मज़दूरों को उनके हक का पैसा नहीं देता था तो, मिशनरी की मदद ली जाती थी। अगर पुलिस मसीही गाँववालों से बदसलूकी करता था मिशनरी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करता था और पुलिस को सबक सिखाया जाता था कि मसीहियों को तंग न करे ... अगर कोई मामूली सरकारी कर्मचारी गाँव के मसीहियों से बेगार करवाना चाहे तो मिशनरी उन्हें काम करने से मना करता था और ऐसे मामलों को उच्चाधिकारियों तक पहुँचाता था। संक्षेप में, मिशनरी ने यह ज़िम्मेवारी ले ली कि जितना हो सके वह सुनिश्चित करे कि मसीहियों की कोई हानि न, उनका उत्पीड़न न हो, कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती न हो, किसी किस्म की कोई नाइनसाफ़ी न हो।

The missionaries were The mai bap of their people, helping them in all matters, whenever and wherever their help was required. If a money-lender threatened Christians, they went to the missionary who was ready to help the poor against the rich; if a zamindar gave less to his Christian hands than was their due, the missionary's help was requisitioned; if the police maltreated Christian villagers, the missionary used his influence and the police were taught the lesson of letting Christians alone ... If petty Government officials wanted  begar (forced labour) from village Christians, the missionary prohibited them from working and reported such cases to high officials. In short, the missionary made it his business, as far as lay in his power, to see that no harm, or oppression, no tyranny, no injustice of any kind, should come near his Christians.
[(Barkat Ullah, "An Aspect of the Mass Movement Problem in the Punjab," National Christian Council Review [May 1927], 292–293); cited in John C. B. Webster, The Pastor to Dalits, New Delhi: ISPCK, 1995, pp. 10–11.]