‘‘भारत तो गाँधी को पीछे छोड़ अंबेडकर की ओर अग्रसर हो
चुका है...’’ यह बात कोई 17 साल पहले अरुण शौरी को लिखे एक पत्र
में विशाल मंगलवादी ने कही थी। शौरी ने हाल ही में एक पुस्तक प्रकाशित
की थी, ‘मिशरनीज़ इनं इंडिया: कंटीन्यूटीज़,
चेंजिज़ एंड
डिलेमाज़’ (1994) जिसमें उन्होंने उन ईसाई मिशनरीयों
की विध्वंसकारी आलोचना प्रस्तुत की थी भारत में जिन्होंने औपनिवेशक काल
में भारत में सेवा की थी। गाँधी के प्रशंसक और अनुयायी, अरुण शौरी अपने आदर्श के समान ही मिशनरीयों, धर्मांतरण और दलितों के उत्थान
के विरुद्ध हैं। उपरोक्त पत्र फ़रवरी 1995 में लिखा गया था। उस समय तक कांशीराम
की बसपा उत्तर भारत में एक बड़ी शक्ति के रूप में उभर चुकी थी।
मंडल आयोग रपट के आस-पास हो रही बहसों और चर्चाओं के चलते पाँच वर्षों में अंबेडकरवाद
का आकर्षण बढ़ता जा रहा था। मानो पत्र में कही बात का प्रतिवाद करने के लिए ही, और गाँधी को वापिस स्थापित करने के लिए, शौरी ने अपनी अगली किताब
अंबेडकर पर हमला करते हुए लिखी, ‘वरशिपिंग फ़ॉल्स गॉड्स: अंबेडकर, एंड द फ़ैक्ट्स विच हैव बीन इरेज़्ड’ जो 1997 में प्रकाशित हुई।
शौरी जो करना चाहते थे क्या उसमें वह सफल हुए?
कुछ महीनों पहले, उपरोक्त पत्र के श्री शौरी तक पहुँचने
के करीब 17 सालों बाद, भारत का मुख्यधारा का मीडिया और भारतीय
मध्य वर्ग इसी सच्चाई से अवगत हुआ, जब ग्रेटेस्ट इंडियन आफ़्टर गाँधी
का परिणाम सामने आया। अंबेडकर नेहरु और कई दूसरी लोकप्रिय शख्सियतों से कहीं आगे थे।
कितने ही लोग यह मानते थे कि अगर गाँधी खुद इस चुनाव का हिस्सा होते तो वह भी नंबर
2 पर ही रहते। अंबेडकर का राष्ट्रीय योगदान क्या है, इस प्रश्न पर हमारी आधिकारिक पाठ्यपुस्तकें
यही कहती रहीं कि वे तो मात्र ‘‘भारतीय संविधान के जनक हैं’’ लेकिन कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों में मौजूद गाँधीवादी राष्ट्रवादी अंबेडकर कीी
बढ़ती लोकप्रियता को रोक नहीं सके। मुख्यधारा मीडिया और हमारे
सांस्कृतिक जीवन में अंबेडकर का यूँ उभर कर आना गाँधीवाद और सामाजिक एव
राजनैतिक दर्शन के गाँधीवादी दृष्टिकोण के लिए गंभीर खतरा बन रहा है।
लेकिन क्या वाकई में?
जब्बार पटेल की फ़िल्म ‘डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर’ (2000) को याद करते हुए इस संदर्भ को ध्यान में रखना फ़ायदेमंद होगा। अंबेडकर पर
कोई भी चर्चा आज नहीं तो कल गाँधी की ओर भी मुड़ेगी, जो अंबेडकर के बुज़ुर्ग समकाली
थे और सामाजिक एवं राजनैतिक रूप से उनके प्रतिद्वंद्वी।
जब रिचर्ड एटनबरो ने 1982 में ‘गाँधी’ फ़िल्म का निर्माण किया तो
उसमें अंबेडकर का कोई ज़िक्र नहीं था। गाँधीवादी इस छलावे में रह सकते थे कि अंबेडकर
को आसानी से भुलाया जा सकता है। लेकिन अंबेडकर और उनकी धरोहर जीवित थी, बल्कि फल-फूल रही थी। और जब 1991 में अंबेडकर की जन्म शताब्दी नज़दीक आने
लगी तो उन पर भी एक विस्तृत फ़िल्म के निर्माण की माँग उठने लगी।
करीब 12 साल पहले रिलीज़ हुई यह फ़िल्म गुणवत्ता की दृष्टि से बेशक बेहतरीन है।
तकनीकी रूप से बहुत ही उमदा। आखिरकार जब भारतीय सिनेमा के बड़े-बड़े नाम एक शाहकार
का निर्माण करने एक साथ आते हैं तो उनसे ऐसी उम्मीद तो की ही जा सकती है।
भानु अथैया, श्याम बेनेगल, ममूटी, अशोक मेहता सब जब्बार पटेल की मदद के लिए मौजूद थे किस तरह से ऐतिहासिक रूप
से विश्वसनीय जीवनी आधारित फ़िल्म बनाई जाए तो सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से आकर्षक भी
हो।
लेकिन गाँधी को यह फ़िल्म कैसे देखती है? यह सच है कि फ़िल्म गाँधी
का कुछ उपहास करती है, उन्हें तेज़-तरार्र लेकिन ज़िद्दी
व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करती है जो अंतत: एक दयालु नैतिक तानाशाह
है, और जो नेहरु को मना लेता है कि वह अंबेडकर को अपने पहले कैबिनेट
में शामिल कर लें। लेकिन, गाँधी का मज़ाक उड़ाना या उपहास करना
किसी भी फ़िल्मकार या किसी लेखक द्वारा उठाया कोई क्रांतिकारी कदम
नहीं कहा जा सकता। गाँधी ने तो खुद अपने साथ ऐसा किया था,
मिसाल के तौर
पर उनकी आत्मकथा में। वैसे भी, लोकप्रिय धारणाओं के विपरीत, हम भारतीयों के लिए अपने महान नेताओं की, यहाँ तक की
देवताओं, की सनक या पागलपन बल्कि उनकी नैतिक कमियाँ
भी कोई खास समस्या पैदा नहीं करतीं।
हाल ही में, सांसद और हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा के सदस्य राम
जेठमलानी ने एक विवादास्पद बयान दिया था कि राम एक बुरे
पति थे और इसलिए वह राम को पसंद नहीं करते। भोले-भाले लोगों को यह सोचने के लिए क्षमा
किया जा सकता है कि यह कोई हिंदू विरोधी बयान था। लेकिन राम जेठमलानी दरअसल एक अच्छे
और संपूर्ण एवं आधुनिक हिंदू के रूप में सामने आ रहे थे।
हिंदू धर्म निश्चित रूप से यह आज़ादी देता है कि अपने देवताओं से ठिठोली करो, यहाँ तक कि उनका मज़ाक भी उड़ाओ। राम जेठमलानी अपनी
उस पार्टी में बने रहेंगे जो राजा राम, योद्धा राम, भाई राम, पुत्र राम, क्षत्रिय राम से प्रेरणा
लेती है चाहे उसे पति राम से कुछ छोटी-मोटी समस्या रही हो। ऐसा इसलिए क्योंकि हिंदू
धर्म अपने देवताओं से संपूर्ण नैतिक शुचिता या प्रवीणता की आशा नहीं रखता।
यह बिलकुल मुमकिन है कि आप एक अच्छे राम भक्त बने रहें और राम की
किसी नैतिक कमी की शिकायत भी करते रहें। इसी प्रकार, गाँधी की शख्सियत के किसी एक पहलू पर बहसबाज़ी करते हुए भी आप एक कट्टर
गाँधीवादी बने रह सकते हैं।
इसलिए जब्बार पटेल गाँधी का मज़ाक उड़ा सकते हैं लेकिन आखिरकार दिखाया यही गया
कि आगे बढऩे के लिए अंबेडकर गाँधी की उदारता के ही मोहताज थे। यह फ़िल्म सटीक उदाहरण
है कि किस तरह ब्राह्मणवाद ने अंबेडकर को राष्ट्रवादी नेताओं के नव-हिंदू देवसमूह में, लुई द्यूमॉन्त के विचार के अनुसार, शामिल करके उन्हें श्रेणीबद्ध
कर दिया है।
वह फ़िल्म जो अंबेडकर के जीवन और विचारों के अनूठेपन को रेखांकित करना चाहती थी
उसे इस बात पर ज़ोर देना चाहिए था कि किस प्रकार भारत की डिप्रेस्ड क्लासिज़ की समस्याओं
का निदान और उपचार गाँधी के हरिजन उद्धार से अलग था।
फ़िल्म के इस बुनियादी असर का एहसास मुझे हुआ जब बहुजन पृष्ठभूमि के छात्रों के
एक छोटे समूह से बात हो रही थी और अचानक से इस फ़िल्म का ज़िक्र आया।
चूंकि हम सबने बहुत पहले यह फ़िल्म देखी थी, इन छात्रों को एक बात
जो बड़ी सफ़ाई से याद थी वह यह कि गाँधी कितने भले थे जो अंबेडकर को अपने साथ ले आए!
यह फ़िल्म कोई अलग बात नहीं कहती सिर्फ़ अंबेडकर के लिए एक जगह
तलाश लेती है, उन दरारों में जो भारतीय राष्ट्रवाद के महावृत्तांत में
समय बीतने के साथ नज़र आने लगीं थीं। और इस तरह से यह उस दरार को भर भी देती है। यह
फ़िल्म व्यापक राष्ट्रवादी विन्यास के अनुरूप है जहाँ अंबेडकर के लिए
जगह बनेगी तो गाँधी के अनुपूरक के रूप में उनके विकल्प के रूप में
नहीं।
अगर राजनीति से कोई संकेत मिलता है तो, भारत ज़रूर गाँधी से आगे
अंबेडकर की ओर बढ़ा है। लेकिन सांस्कृतिक और कलात्मकता के क्षेत्रों
में अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना है।
(फॉरवर्ड प्रेस के दिसंबर 2012 अंक में प्रकाशित लेख का हलका संशोधित संस्करण)