की ऐश्वर्या कहा है"। चौकसे को नियमित तौर पर नहीं पढ़ पाता लेकिन जब भी पढ़ता हूँ तो उनकी एक-आध बात तो लाज़मी तौर पर असर डालती है। इस लेख मे जिस बात ने खासतौर पर ध्यान खींचा वह चौकसे की यह टिप्पणी थी:
प्रायः महिला सितारों की पारी लंबी नहीं होती क्योंकि करियर के बैंक में जवानी का डिपोज़िट घटने पर मुस्काने के चैक भी बाउंस होने लगते हैं। केवल प्रतिभा के दम पर हॉलीवुड में ही नायिकाएं सम्मानपूर्वक लंबी पारियां खेलती हैं जैसे मैरिल स्ट्रीप आज भी पसंद की जाती हैं। क्या यह गौरतलब नहीं है कि प्रचलित तौर पर भौतिकवादी कहे जाने वाले पश्चिम में महिला सितारे यौवन के नहीं, प्रतिभा के दम पर टिके रहते हैं और नगाड़ों की चोट पर स्वयं को अध्यात्मवादी देश मानने वाले भारत में महिला सितारों की पारी उनके सेक्सी और खूबसूरत बने रहने तक ही चलती है? दरअसल जीवन के हर क्षेत्र में तमाम पारंपरिक परिभाषाओं के पुनः परीक्षण की आवश्यकता है।
हमारा बदला हुआ स्वरूप और दृष्टिकोण महज अय्याशी का दिखावा नहीं है वरन हमारा अपना सत्य है।हालाँकि चौकसे ने खुद इस लेख में पुनः परीक्षण नहीं किया। शब्द सीमा और मौके की कुछ मजबूरियाँ होती हैं लेकिन बात बेशक गौरतलब है। बात दरअसल पुरुष महिला के मुद्दे से अधिक बुनियादी है। बात मानवीय अस्तित्व से जुड़ी हुई है। किसी मनुष्य का अंतर्निहित मूल्य क्या है? क्या वह उसकी जीवन की अवस्था के साथ-साथ बदल जाता है? क्या वह उसके लिंग के साथ बदल जाता है? उसके किसी वर्ग विशेष के साथ जुड़े होने से प्रभावित होता है? खास भारतीय, समाज की बात करें तो क्या वह उसकी जाति के
साथ बदल जाता है?