Tuesday, 14 August 2007

आज़ादी की पूर्वसंध्या पर

देश की आज़ादी की साठवीं वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर हिंदी में एक नया ब्लॉग शुरु कर रहा हूँ। यह एक संयोग है हालांकि इसे सिर्फ अंग्रेज़ी में ही लिखने से आज़ादी पाने का एक प्रतीक भी माना जा सकता है। आज के दिन और आज़ादी के बीच के संबंध को सार्थक बनाने की एक दिलचस्प घटना आज हुई। दफ़्तर में बैठे बैठे डॉ सत्यपाल सहगल का एसएमएस आया कि तस्लीमा नसरीन पर हुए हमले के विरोध में चंडीगढ़ का एक संगठन सत्रह सेक्टर—जो कि शहर का कमर्शियल सेंटर है—में कुछ लोगों को इकट्ठा कर रहा है। अख़बारों में छपी तस्वीर जिसमें तस्लीमा गुस्साई, डरी हुई अपनी साड़ी का पल्लू संभाल रही हैं और कुछ आयोजनकर्ता मानवीय ढाल बन उन्हें बर्बर विधायकों से बचा रहे हैं मेरे मन में अभी भी ताज़ा थी। करीब साढ़े बारह बजे मैं भी प्लाज़ा पर पहुंच गया। हम कुछ ही लोग थे। कुछ के हाथों में प्लैकार्ड थे और कुछ ने बॅनर पकड़ रखा था। सहगल जी ने दूर ही से देख हाथ हिलाया। बहुत दिनों बाद उनसे मुलाकात हुई। ख़ैर, विरोध प्रदर्शन में हम लोगों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी, तस्लीमा नसरीन, कलाकारों, लेखकों, चित्रकारों की स्वतंत्रता को लेकर ज़िंदाबाद तथा कट्टरवाद, आतंकवाद, फिरकापरस्ती तथा हर प्रकार की संकीर्णता के ख़िलाफ़ मुर्दाबाद के नारे लगाए।


इसी बीच याद आया कि पिछली बार करीब आठ-साढ़े आठ साल पहले भी मैं इस प्रकार के एक विरोध प्रदर्शन का हिस्सा था। ग्राहम स्टेन्स और उसके दो बेटों के क़त्ल के बाद चंडीगढ़ के एक मानवाधिकार संगठन ने भी इसी प्रकार का और इसी जगह एक विरोध प्रदर्शन किया था। उस दिन सब लोग मानव-श्रृंखला बना, हाथों में प्लैकार्ड लिए खड़े थे। बाज़ार में घूमते-फिरते लोग इस तरफ़ देखते, कुछ नज़दीक आ कर पोस्टर, प्लैकार्ड पड़ते। दो शख़्स इसी तरह पास आए और कोने में खड़े एक व्यक्ति के हाथ में पकड़े प्लैकार्ड पर चिपके कागज़ को फाड़ने लगे। हम सब उन्हें चुपचाप खड़े देख रहे थे और वे भी बिना कुछ कहे बेपरवाही में—जैसे ललकारते हुए—पोस्टर फाड़ रहे थे। कोई भी इस यथास्थिति को भंग नहीं करना चाहता था। लगता था कि दो पक्ष इसी मुद्रा के द्वारा कोई वक्तव्य दे रहे हों। अपनी अपनी स्थिति बयान होते देख रहे हों।


आज ऐसा कुछ नहीं हुआ। विरोध प्रदर्शन करने वालों के एक साथ होते ही अलग-अलग अख़बारों के फोटोग्राफ़र तस्वीरें उतारने लगे। थोड़ी देर के लिए सब कुछ बड़े ही स्टेज-मैनेजड तरीके से होता लग रहा था। फोटो उतारने वाले गले में लटके कैमरों को आंखों के सामने ला कर फोकस करते फिर छाती और बढ़ते जाते पेट के सामने टिका कर हमें ठीक से, हिसाब से, आंदोलनकारियों की तरह खड़े होने के निर्देश देते। एक जनाब कहते हैं, "मैडम को आगे लाएं" दूसरे की मांग है , "वकील साहब थोड़ी मुट्ठी बना कर हवा में लहराएं" पहले वाले फिर मुझसे अंग्रेज़ी में कहते हैं, "वाय आर यू हाइडिंग युअर फेस?"

खैर इन महारथियों के फारिग होने के बाद सब प्रदर्शनकारी अपनी लय में आए और शुरु हुआ नारों का दौर। हिंदी और पंजाबी में लगाए नारे सब को आपस में जोड़ रहे थे। एक युवा विद्यार्थी पीठ पर एक बैग लटकाए और हाथों में शीतलपेय का डिस्पोज़ेबल गिलास पकड़े पास आया और बड़े गौर से प्लैकार्ड्स पे जो लिखा था पड़ने लगा। मेरा ध्यान कुछ देर बाद उससे हटा क्योंकि हमारे बिल्कुल पीछे बूटपॉलिश करने वाले दो लड़के झगड़ रहे थे और एक दूसरे से गुत्थम-गुत्था होते भद्दी गालियां बक रहे थे। अभिव्यक्ति की उनकी आज़ादी का मेरे साथ खड़े एक प्रदर्शनकारी ने हनन किया। जब मैंने वापिस मुड़ कर देखा तो वह विद्यार्थी जा चुका था। "तस्लीमा नसरीन हम तुम्हारे साथ हैं, आगे बढ़ो आगे बढ़ो" का नारा लगाते हमने चलना शुरु किया। प्लाज़ा का एक चक्कर लगाते हुए हम किताबों की प्रमुख दुकानों के सामने से भी गुज़रे। दुकानवालों ने या दुकान में किताबें खरीदने वालों ने हम पर ध्यान दिया हो यह मालूम नहीं। खैर हम पूरे जोश-ओ खरोश के साथ नारे लगाते रहे। उस वक्त यह यकीन पुख़्ता होता जा रहा था कि है कि मूल्यों की राह पर चलने वाले लोग थोड़े ही होते हैं। हम लोग कम थे। जितने होने चाहिए थे उससे कम। पर कम होने का ख़्याल सार्थक होने की अनुभूति से कहीं छोटा था। तंगदिली के ज़माने में आज़ादी की चाह करना महान अनुभव था। आज़ादी की साठवीं वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर संयोगवश मिले इस अवसर ने आज़ादी के नए मायने बताए।