Sunday 7 November 2010

हिंदुस्तान का दिल देखो

तिल देखो ताड़ देखो
आँखें फाड़-फाड़ देखो
शेर की दहाड़ देखो
मारबल का पहाड़ देखो
चंदेरी की साड़ी देखो
बांधवगढ़ की झाड़ी देखो
उज्जैन के संत देखो
बौद्धिक महंत देखो
बुद्धा के निशान देखो
गीता और कुरान देखो
इंदौर की शान देखो
कैसे बनता पान देखो

वाह भैया

खजुराहो शिल्पकारी देखो
भीमबेटका कलाकारी देखो
कट्टर प्रेम पुजारी देखो
आँखें मीचे-मीचे देखो
आँखें फाड़-फाड़ देखो

सतपुड़ा की रानी देखो
भोपाल राजधानी देखो
राजधानी में झील देखो
बहता पानी झिलमिल देखो
धर्मों की महफ़िल देखो
हिंदुस्तान का दिल देखो

Tuesday 28 September 2010

नगाड़ों की चोट पर ...

दैनिक  भास्कर अखबार में जयप्रकाश चौकसे का आज का स्तंभ संजय लीला भंसाली की आने वाली फ़िल्म गुज़ारिश पर था। तीन-एक साल में चालीस साल की हो जाने वाली ऐश्वर्या राय को चौकसे ने "चालीस कैरट
की ऐश्वर्या कहा है"। चौकसे को नियमित तौर पर नहीं पढ़ पाता लेकिन जब भी पढ़ता हूँ तो उनकी एक-आध बात तो लाज़मी तौर पर असर डालती है। इस लेख मे जिस बात ने खासतौर पर ध्यान खींचा वह चौकसे की यह टिप्पणी थी:
प्रायः महिला सितारों की पारी लंबी नहीं होती क्योंकि करियर के बैंक में जवानी का डिपोज़िट घटने पर मुस्काने के चैक भी बाउंस होने लगते हैं। केवल प्रतिभा के दम पर हॉलीवुड में ही नायिकाएं सम्मानपूर्वक लंबी पारियां खेलती हैं जैसे मैरिल स्ट्रीप आज भी पसंद की जाती हैं। क्या यह गौरतलब नहीं है कि प्रचलित तौर पर भौतिकवादी कहे जाने वाले पश्चिम में महिला सितारे यौवन के नहीं, प्रतिभा के दम पर टिके रहते हैं और नगाड़ों की चोट पर स्वयं को अध्यात्मवादी देश मानने वाले भारत में महिला सितारों की पारी उनके सेक्सी और खूबसूरत बने रहने तक ही चलती है? दरअसल जीवन के हर क्षेत्र में तमाम पारंपरिक परिभाषाओं के पुनः परीक्षण की आवश्यकता है।
हमारा बदला हुआ स्वरूप और दृष्टिकोण महज अय्याशी का दिखावा नहीं है वरन हमारा अपना सत्य है।
हालाँकि चौकसे ने खुद इस लेख में पुनः परीक्षण नहीं किया। शब्द सीमा और मौके की कुछ मजबूरियाँ होती हैं लेकिन बात बेशक गौरतलब है। बात दरअसल पुरुष महिला के मुद्दे से अधिक बुनियादी है। बात मानवीय अस्तित्व से जुड़ी हुई है। किसी मनुष्य का अंतर्निहित मूल्य क्या है? क्या वह उसकी जीवन की अवस्था के साथ-साथ बदल जाता है? क्या वह उसके लिंग के साथ बदल जाता है? उसके किसी वर्ग विशेष के साथ जुड़े होने से प्रभावित होता है? खास भारतीय, समाज की बात करें तो क्या वह उसकी जाति के
साथ  बदल जाता है?

Saturday 10 July 2010

कर्ण का कर्म: अशक्त क्रोध?

प्र:...आपका शीर्षक यह नहीं बताता कि पुस्तक मुख्य रूप से महाभारत पर है ... आपने महाभारत को ही क्यों चुना?
: मैंने महाभारत को चुना क्योंकि मैं जानता था कि महाभारत धर्म से आसक्त है, और मैं हमारे में शासन की दशा और भ्रष्टाचार को लेकर बहुत ही निराश था। और मैं यह भी जानता था कि पूरे महाकाव्य के दौरान महाभारत नागरिक सद्गुणों की परिकल्पना खोज रही थी, केवल नागरिकों के सद्गुण ही नहीं बल्कि शासकों के भी ...
उपरोक्त प्रश्न समाजशास्त्री और राजनैतिक मनोविश्लेषक आशीष नंदी ने पूछा था और उत्तर देने वाले थे गुरचरण दास जब उन्होंने दास की किताब द डिफिकल्टी ऑफ़ बींग गुड: ऑन द सटल आर्ट ऑफ़ धर्म (पेंगुइन, 2009) पर अपनी टीवी परिचर्चा शुरू की। यह किताब प्राचीन महाकाव्य पर एक समकालीन चिंतन है। यह महाकाव्य, जैसा कि लेखक ने कहा, “धर्म से आसक्त है, अर्थात् सही और गलत के, अच्छाई और बुराई के, सत्य और असत्य के प्रश्नों से। जीवन में हम जो कई चुनाव करते है, व्यक्तिगत या सामूहिक तौर पर, वे इसी प्रकार के अंतरों के बारे में होते हैं। महाकाव्य के कुछ सबसे अत्याकर्षक पात्रों एक-एक अध्याय लिखते हुए, गुरचरण दास अपने पाठकों को उन पात्रों के अनुभवों के प्रति जागरूक करते हैं कि वे खुद अपने जीवनों के लिए उनसे कुछ सबक सीखें। ये केवल धार्मिक, बल्कि आध्यात्मिक, सबक ही नहीं हैं। ये सामाजिक और राजनैतिक नैतिकता के सवाल हैं। और उससे भी आगे, ये मुद्दे हैं ईर्ष्या, साहस, कर्त्व्य, निराशा इत्यादि जैसी हमारी रोज़मर्रा की मानवीय भावनाओं के।

इस प्रकार की पुस्तक यह संकेत देती है कि समाज एक विशाल सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक उथल-पुथल के बीचों बीच है। कोई भी समाज जो इस तरह के सवालों का सामना कर रही है वह एक मज़बूत धरातल की खोज करने को बाध्य हो जाता है जिस पर खड़ा हो कर वह बुद्धिमतापूर्ण फ़ैसले कर सके। एक नैतिक दिशासूचक के रूप में महाभारत की ओर ताकने वाले गुरचरण दास अकेले नहीं हैं। साल 2006 में चतुर्वेदी बद्रीनाथ ने अपनी महत्त्वाकाँक्षी पुस्तक महाभारत: एन इनक्वायरी इन द ह्यूमन कंडीशन (ओरियंट लॉन्गमैन) प्रकाशित की। और इस साल, मार्च 2010 में, विवेक देवराय ने 10 खंडों में महाभारत के अनुवाद की परियोजना की पहली किश्त प्रकाशित की।
समकालीन भारतीय बुद्धिजीवियों में महाभारत को लेकर एक नवीकृत दिलचस्पी जागी है। सार्वजनिक और निजी नैतिकता की खोज में एक विन्यास देखा जा सकता है। यह खोज बुद्धिजीवियों को बार-बार इस प्राचीन महाकाव्य कि ओर ले जाती है।
यही वह विचारधारात्मक पृष्ठभूमि है जिसके परिप्रेक्ष में प्रकाश झा की नवीनतम फ़िल्म राजनीति को देखा जा सकता है। ऐसा नहीं कि यह संयोगवश ही महाभारत पर आधारित कोई एक अकेली फ़िल्म है। यह उपरोक्त बौद्धिक खोज का ही हिस्सा है। फ़िल्म का इरादा मनोरंजन करना है, पर यह समकालीन भारतीय राजनीति को महाभारत के खाके में रख कर समझने का एक प्रयास भी है। झा को सामाजिक प्रसंग की फ़िल्में बनाने के लिए जाना जाता है। उनकी लगभग सभी फ़िल्में एक दर्पण का कार्य करती हैं जो समाज की वास्तविकता को प्रतिबिंबित करती है। उनके बारे में एक कमोबेश कम ज्ञात तथ्य यह है कि उन्होंने चुनावों की राजनीति में भी हिस्सा लिया है। उन्होने दो लोकसभा चुनाव लड़े, 2004 और 2009 में; दोनों बार वे पराजित हुए। इस तरह यह फ़िल्म, राजनीति, एक अंदर के आदमी की जानकारी का भी फल है। महाभारत बेशक एक राजनैतिक गाथा है। वह बड़ी लड़ाई सिंहासन के लिए, सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए, एक ही परिवार की दो शाखाओं के बीच लड़ी गई।
वंशवाद आधुनिक भारतीय राजनीति का एक अटूट हिस्सा है और इसीलिए महाभारत के साथ एक समानता है। लेकिन प्रजातांत्रिक आदर्श भी आधुनिक राजनीति का दिशानिर्देशन करते हैं और अंततः यह साधारण पुरुषों और साधारण महिलाओं के बारे में है। महाकाव्यों में आम जनता मात्र तमाशाई है, दर्शक है; कर्म कुलीन वर्ग करता है। बड़े-बड़े महाकाव्य देवों, राजाओं और युवराजाओं का महिमागान करते हैं; समकालीन राजनीति आम जनता, निम्न वर्ग, और हाशिए पर रहने वालों की आकाँक्षओं की गवाह है। यह एक सृजनात्मक समस्या है: उन समयों में राजाओं और देवताओं की कहानियाँ किस तरह पेश की जाएंगी जब सत्ता की चाबी आम नागरिकों के हाथ में है? उस कहानी में जो प्राचीन मिथकीय काल में रची-बसी है, उसमें आधुनिक काल के आम आदमी की तस्वीर कैसे प्रस्तुत की जाए? उस देश-काल की कथा जिसमें आम जनता को उपर उठने की अनुमति नहीं थी उसे किस प्रकार प्रासंगिक बनाया जाए?

इस फ़िल्म में, ये प्रश्न एक पात्र पर केंद्रित होते हैं सूरज कुमार, एक युवा और उभरता हुआ निम्न-जाति का नेता।
आखिरकार महाभारत केवल धर्म की ही बात नहीं करता। यह वर्णाश्रम धर्म को भी पुनः लागू करता है । ब्राह्मण (द्रोण) शूद्र या आदिवासी छात्र (कर्ण, एकलव्य) को शिक्षा नहीं देंगे, एक क्षत्रीय सुंदरी द्रौपदी शूद्र कर्ण से विवाह करने से इनकार कर देगी, वर्णाश्रम धर्म के तर्क का इस्तेमाल करते हुए कृष्ण अर्जुन को एक क्षत्रीय के रूप में लड़ने के लिए मना लेंगे।
एक रथवान के पुत्र के रूप में आज कर्ण ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग/जाति के सदस्य) कहलाए जाएंगे। परंतु फ़िल्म में सूरज (अजय देवगन) एक दलित हैं जो पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करने का दावा भी करता है। सूरज कुमार राजनीति पर वंशवाद के दबदबे को तोड़ने का प्रयास करता है। वह एक स्वाभिमानी युवक है जो लोकतंत्र की, और संख्याओं की, शक्ति को समझता है।
हरिजन बनाम दलित
हालाँकि, जब वह राजनीति और शासन में सार्थक प्रतिनिधित्व की माँग उठाना शुरू करता है तो उसे ऐसी रुकावटों का सामना करना पड़ता है जो केवल उच्च वर्णीय राजनेताओं ने ही नहीं बल्कि उसके अपने समुदाय के सदस्यों ने पैदा की हैं। उसकी अपनी जाति के बुज़ुर्ग सोचते हैं कि यथास्थिति पर सवाल उठाने उसका पागलपन है। सूरज द्वारा चुनाव लड़ने की अभिलाषा समुदाय को दो खेमों में बाँट देती है, जवानों और बुज़ुर्गों की पीढ़ी। उसे हरिजन और दलित खेमा कहना अधिक सार्थक होगा। हरिजन शब्द अछूतों द्वारा गाँधी द्वारा प्रयोग में लाया गया था। परंतु यह शब्द डिप्रेस्ड क्लास के उन

नेताओं पर लागू किया जा सकता है जिन्होंने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति में दोयम दर्जे की भूमिका निभाना स्वीकार किया। वे निचले पदों पर रहने में, और पार्टी के लिए समुदाय के वोटों के बिचौलिए बनने में ही संतुष्ट थे। पार्टी का नियंत्रण हालांकि उच्च वर्णों के हाथों में ही रहा। इसमे जीवन कुमार जैसे क्रीमी परत वाले राजनेता भी शामिल हैं जो फ़िल्म में उच्च वर्णीय नेताओं के कमज़ोर मोहरे थे। दलित शब्द उन उभरते हुए विचारकों, कलाकारों और अगुवों को चिह्नित करता है जिन्होंने अपनी राजनैतिक महत्त्वाकाँक्षाओं को वर्चस्वधारी जातियों के नेताओं के पैरों में समर्पित करने से इनकार कर दिया। सूरज और उसके पिता के बीच एक संवाद में हरिजन और दलित मानसिकता का भेद साफ़ हो जाता है। पिता, जो एक ड्राइवर है, यह कहता है कि सूरज को अपने मालिकों के खिलाफ़ आवाज़ नहीं उठानी चाहिए क्योंकि उनसे घर की रोज़ी-रोटी चलती है। इस हरिजन वक्तव्य के विरोध में दलित सूरज कहता है मालिकों को रोटी नौकर कमा कर देता है।
अभिलाषी, लेकिन अगुवा नहीं
सूरज एक अभिलाषी है। लेकिन फ़िल्म में उसे एक अगुवे या नेता के रूप में विकसित नहीं किया गया। उसे एक भी रैली को संबोधित करते हुए नहीं देखा जा सकता। उसके साथ उसकी कबड्डी टीम के सदस्यों का दल साथ रहता है, और वह आवाज़ भी उठाता है लेकिन केवल हाशिए से अपने मौहल्ले में, पार्टी की बैठक में और दर्शकों के बीच से। सूरज को कभी भी मंच नहीं मिलता। ऐसे कई उदाहरण मिलतें कि वह केवल एक हत्यारा है। फ़िल्म उसे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में गौण कर देती है, जिसे बॉलिवुड के शब्दों में कहें तो, जो सुपारी उठाने वाला अंडरवर्ल्ड का डॉन है। फ़िल्म में पिछड़ी जातियों की राजनीति को वृहद रूप में देखें तो वह केवल (उच्च जातीय नेताओं की) एक चाल-सी लगती है, चाहे बात पृथ्वी प्रताप (अर्जुन रामपाल) द्वारा नाममात्र उम्मीदवार जीवन कुमार को मैदान में उतारने की हो, या फिर ब्रिज गोपाल (नाना पाटेकर) द्वारा दलित घराने के पारिवारिक जज़्बातों की राजनीतिक मैनीपुलेशन की, जहाँ वह बाप को बेटे के खिलाफ़ खड़ा कर देता है फूट डालो और राज करो की नीति अनुसार।
फ़िल्म की शुरुआत में ब्रिज गोपाल चंद्र प्रताप और उसके बेटे को चेतावनी देते हैं कि उन्हें वीरेंद्र (मनोज बाजपेयी) की बजाय सूरज की अधिक चिंता करनी चाहिए। उस समय दर्शकों को लग सकता है कि सूरज उनके लिए एक चुनावी खतरा होगा, लेकिन हम देखते हैं कि वह केवल उनकी जान का खतरा बन कर रह जाता है।
पारिवारिक प्रतिष्ठा

हमारे राजनेताओं के लिए यह असामान्य बात नहीं के वे जनता, पार्टी या राजनीतिक नैतिकता का कोई सम्मान न करें। महाभारत के अर्जुन और अमेरिकी उपन्यास और फ़िल्म द गॉडफ़ादर के किरदार माइकल कोरलियोन पर आधारित समर प्रताप (रणबीर कपूर) का पात्र अपनी नज़दीकी परिवार के पुरुष सदस्यों के लिए लड़ रहा है: उसका मृत बाप और जेल में बंद भाई।

साहित्य का विद्यार्थी, समर राजनैतिक भंवर में कूद पड़ता है, इसलिए नहीं कि वह किसी मानवतावादी मूल्यों के तंत्र या गरीबों और दबे-कुचले लोगों के लिए सरोकार से प्रेरित है। उसका मुख्य प्रयोजन अपने परिवार के साथ हुए गलत व्यवहार का बदला लेना है। दूसरी तरफ़, सूरज अपने समुदाय कि ओर से राजनीति में हस्तक्षेप करता है। लेकिन चूँकि निर्देशक की नज़रों में उसके परिवार की कोई प्रतिष्ठा नहीं, उसे केवल एक गुंडे का रूप दे दिया जाता है। सूरज का पिता प्रताप खानदान का ड्राइवर है। जब वह परिवार के छोटे बेटे समर को हवाई अड्डे से लेने जाता है तो उसे युवा तुर्क (समर) से तोहफ़े के तौर पर एक घड़ी मिलती है। सूरज इस प्रकार के कृपाकर्म से नाराज़ होता है। वह अपने पिता से कहता है कि इस तोहफ़े का इरादा सिर्फ़ यह है कि वह समय से अपनी ड्यूटी पर पहुँचे। झा चाहते हैं कि हम यह मान लें कि सूरज का गुस्सा अतार्किक है, उसका कोई आधार नहीं। समर एक भला लड़का है जिसने अपने फ़रमाबरदार नौकर के प्रति प्यार और आदर के कारण उसे यह तोहफ़ा दिया है। फ़िल्म में एक भी ऐसी घटना नहीं है जो बहुजन पीड़ा और गुस्से के लिए एक मज़बूत मामला पेश कर सके।
क्या लाखों पुत्रों का उदय होगा?
साल 2009 के आम चुनाव के परिणाम घोषित होने के बाद, आशीष नंदी ने तहलका में लिखा था कि भारतीय राजनीति में लामबंदी की इकाई व्यक्ति नहीं जाति है और इस चुनाव को मंडलोत्तर युग मानना एक जल्दबाज़ी होगी। प्रकाश झा कहते हैं कि वह आशीष नंदी की पुस्तकों इत्यादि को बड़ी दिलचस्पी के साथ पढ़ते हैं। लेकिन इस फ़िल्म में झा पिछड़ी जातियों के नेताओं ने समकालीन राजनीति में जो
भूमिका निभाई है उसके महत्त्व को कम करते लगते हैं, और केवल उच्च जातियों के वंशवादी तत्व को ही चिन्हांकित करते हैं। बेशक जाति की सच्चाई इस फ़िल्म में मौजूद है। सूरज बड़े अभिमान के साथ कहता है कि वह एक दलित है, एक ऐसा शब्द जो बॉलिवुड में शायद ही कभी इस्तेमाल होता हो। लेकिन राजनीति केवल एक पारिवारिक झगड़ा बन कर रह जाती है, जहाँ पिछड़ी जाति के नेता द्वारा किसी भी सकारात्मक कर्म से इनकार कर दिया जाता है।
ठीक इसी पल, देश के सामने सबसे बड़ा सामाजिक-राजनैतिक प्रश्न यही है कि क्या जनगणना में लाखों कर्णों (ओबीसी) की गिनती की जाएगी। यह फ़िल्म समकालीन लोकतांत्रिक माहौल में कर्णों के उदित होने को दिखाने में असफल होती है। ऐसा इसलिए भी हो क्योंकि यह महाकाव्य फ़िल्मकार पर सीमा लागू कर देता है। इस महावृत्तांत में कर्ण हमेशा हाशिए पर रहने वाला किरदार ही रहेगा, सत्ता के जायज़ दावों से हमेशा वंचित। एक सद्गुण जिसकी अनुमति उन्हें मिलती है वह है स्वामीभक्ति जो अंत में आत्मघाती स्वामीभक्ति है। क्या यही कर्ण का नितांत कर्म है एक अशक्त क्रोध की आग में जलना और जल कर खत्म हो जाना? क्या सत्ता हमेशा उनकी पकड़ से बाहर रहेगी? वास्तविक जीवन में अगर किसी और ने नहीं तो मायावती ने इस मिथक को तोड़ दिया है। और अगर राजनीति कुछ साबित करती है तो यही कि बहुजनों की आकांक्षाओं के लिए ज़रूरी नहीं कि महाभारत ही एक पटकथा है।
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कर्ण पर कुछ चुनिंदा साहित्यिक कृतियाँ
कर्ण एवं कुंती, रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा एक लघु नाटक
प्रथम पार्थ, बुद्धदेव बोस द्वारा एक नाटक
मृत्युंजय, शिवाजी सांवद द्वारा एक उपन्यास
राधेय, रणजीत देसाई द्वारा एक उपन्यास
रश्मिरथी, रामधारी सिंह दिनकर द्वारा एक लंबी कविता
महाभारत पर अन्य लोकप्रिय कृतियाँ

द ग्रेट इंडियन नॉवेल, शशि तरूर
युगांत: दि एंड आफ़ एन इपॉक, इरावती कर्वे
द डिफिकल्टी ऑफ़ बींग गुड: ऑन द सटल आर्ट ऑफ़ धर्म, गुरचरण दास
द महाभारत: एन इनक्वायरी इन द ह्यूमन कंडीशन, चतुर्वेदी बद्रीनाथ



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कर्ण एक बाहरी व्यक्ति के सर्वोत्तम उदाहरण हैं। मूल महाभारत में, सामाजिक रूप से वे एक शूद्र हैं, क्षत्रियों की सभा में अकेले। राजनीति फ़िल्म में, वह ठाकुरों के बीच अकेले दलित नेता हैं। अपने व्यंग्यात्मक उपन्यास, द ग्रेट इंडियन नॉवेल में शशि तरूर, जाति के पक्ष को समाप्त कर देते हैं, हालाँकि वे एक अन्य बाहरी व्यक्ति को कर्ण का जामा पहना देते हैं मोहम्मद अली जिन्नाह, जो उपन्यास में मोहम्मद अली करणा, कहलाता है! इस बात पर आश्चर्य हो सकता है कि तरूर ने बी. आर. अंबेडकर को अपने वृत्तांत से बाहर क्यों छोड़ दिया। क्या यह भी वही मामला हो सकता है जिसमें एक निम्न जातीय व्यक्ति का महान महाकाव्य में प्रवेश निषेध कर दिया जाता है?
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(फॉरवर्ड प्रैस के जुलाई अंक में इसी शीर्षक से प्रकाशित)