Friday 19 September 2008

मन मेरा पतझड़ का पत्ता

इक्कीसवीं सदी में भक्ति गीत कैसे लिखा जाए? सुने सुनाए भक्ति काव्य को ही रीसाइकल करते रहने का ख़तरा बना रहता है। हम वो मनुष्य नहीं रह गए। ईश्वर पर भरोसे और विश्वास के मायने भी बदल गए हैं। हम समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, तथा नैचुरल सांईस को अच्छे से समझते हैं। हमारी अपने बारे में, परमेश्वर के बारे में धारणाएं बदली हैं। इस बीच क्या भक्ति साहित्य केवल साहित्य की विधा या साहित्य के विकास की एक ऐतिहासिक अवस्था बन कर रह गया है।

मनुष्य के भय, चिंताएं, तनाव अभी समाप्त नहीं हुए। किसी को पुकारना की उसकी ज़रूरत अभी पुरानी नहीं पड़ी।

मन मेरा पतझड़ का पत्ता कांपे है प्रभु कांपे है
मन मेरा पतझड़ का पत्ता कांपे है प्रभु कांपे है

दुख संकट की आंधी आई आंधी आई आंधी आई
सुबह अंधेरा रात सियाही रात सियाही रात सियाही
नही रोशनी किसी ओर भी नज़र नहीं कुछ आवे है
मन मेरा पतझड़ का पत्ता कांपे है प्रभु कांपे है

तूफ़ानो को तुमने प्रभु जी शांत किया हां शांत किया
गहरे पानी की लहरों को डांट दिया फिर डांट दिया
तुम्हरी कोमल वाणी से मेरा डगमग मन बल पावे है
मन मेरा पतझड़ का पत्ता कांपे है प्रभु कांपे है

Tuesday 2 September 2008

पहचान का संघर्ष पुराना है

मसीही समुदाय, या जिसे मसीही कलीसिया भी कहा जाता है, के आरंभिक दिनों में पहचान का मुद्दा एक घोर संघर्ष बन कर यीशु के शिष्यों के सामने था। पौलुस जो पहले शाऊल नामक फ़रीसी थे को यह लगता था कि यहूदी धर्मशास्त्रों के बारे में उनकी समझ में कोई त्रुटि नहीं। नासरत निवासी यीशु के शिष्य प्राचीन एवं महान यहूदी धर्म में मिलावट कर रहे हैं तथा उनकी महान पहचान को चोट पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके लिए कलीसिया का दमन करना अपनी पहचान को बचाए रखने का एकमात्र रास्ता था। परंतु यीशु के शिष्यों के लिए भी अपनी यहूदी विरासत का घमंड छोड़ना कोई आसान काम नहीं था। इब्रानी राष्ट्र के प्रत्येक जन के मन में यह बात घर कर गई थी कि वे विशिष्ट हैं, परमेश्वर के चुने हुए लोग हैं। इस बोध के साथ दूसरी जनसमूहों, राष्ट्रों और जातियों को तुच्छ जानना भी उनकी अपनी पहचान का हिस्सा था। पतरस को प्रभु ने एक दर्शन के द्वारा विशिष्ट और तुच्छ, शुद्ध और अशुद्ध के भेद को त्यागने का आदेश दिया। पतरस को यह सीखना था कि परमेश्वर की संपूर्ण कृपा गैर-यहूदियों पर भी बिना किसी हिचक और अंतर के होती है। हालांकि इस्राएल राष्ट्र रोमी साम्राज्यवाद का उपनिवेश था और शासक एवं शासित के बीच बहुत तनाव था फिर भी पतरस को कुरनेलियस नामक रोमी सेनापति को कलीसिया का हिस्सा स्वीकार करना था। इसी प्रसंग को लेकर कुछ दोहे

कौन पराया आपना का है शुद्ध अशुद्ध
प्रभु की किरपा सब पर है तू होता क्यों विरुद्ध

प्रभु की किरपा सबको है सबको प्रभु आनंद
खोल खिड़कियां दरवाज़े तू बैठा क्यों बंद

जिसको नीचा माने है उस पर भी किरपा होवेगी
मानव सीमा प्रभु न जाने किरपा की बरखा होवेगी