Friday 19 September 2008

मन मेरा पतझड़ का पत्ता

इक्कीसवीं सदी में भक्ति गीत कैसे लिखा जाए? सुने सुनाए भक्ति काव्य को ही रीसाइकल करते रहने का ख़तरा बना रहता है। हम वो मनुष्य नहीं रह गए। ईश्वर पर भरोसे और विश्वास के मायने भी बदल गए हैं। हम समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, तथा नैचुरल सांईस को अच्छे से समझते हैं। हमारी अपने बारे में, परमेश्वर के बारे में धारणाएं बदली हैं। इस बीच क्या भक्ति साहित्य केवल साहित्य की विधा या साहित्य के विकास की एक ऐतिहासिक अवस्था बन कर रह गया है।

मनुष्य के भय, चिंताएं, तनाव अभी समाप्त नहीं हुए। किसी को पुकारना की उसकी ज़रूरत अभी पुरानी नहीं पड़ी।

मन मेरा पतझड़ का पत्ता कांपे है प्रभु कांपे है
मन मेरा पतझड़ का पत्ता कांपे है प्रभु कांपे है

दुख संकट की आंधी आई आंधी आई आंधी आई
सुबह अंधेरा रात सियाही रात सियाही रात सियाही
नही रोशनी किसी ओर भी नज़र नहीं कुछ आवे है
मन मेरा पतझड़ का पत्ता कांपे है प्रभु कांपे है

तूफ़ानो को तुमने प्रभु जी शांत किया हां शांत किया
गहरे पानी की लहरों को डांट दिया फिर डांट दिया
तुम्हरी कोमल वाणी से मेरा डगमग मन बल पावे है
मन मेरा पतझड़ का पत्ता कांपे है प्रभु कांपे है

6 comments:

Advocate Rashmi saurana said...

bhut sundar. jari rhe.
aap apna word verification hata le taki humko tipni dene me aasani ho.

फ़िरदौस ख़ान said...

दुख संकट की आंधी आई आंधी आई आंधी आई
सुबह अंधेरा रात सियाही रात सियाही रात सियाही
नही रोशनी किसी ओर भी नज़र नहीं कुछ आवे है
मेरा मन सूखा पत्ता प्रभु जी कांपे है कांपे है

बहुत ही उम्दा...

शोभा said...

तूफ़ानो को तुमने प्रभु जी शांत किया हां शांत किया
गहरे पानी की लहरों को डांट दिया फिर डांट दिया
तुम्हरी कोमल वाणी से मेरा डगमग मन बल पावे है
मन मेरा पतझड़ का पत्ता कांपे है प्रभु कांपे है
बहुत खूब लिखा है। बधाई।

Udan Tashtari said...

बहुत सही,,

मेरा मन सूखा पत्ता प्रभु जी कांपे है कांपे है

कुश said...

bahut badhiya...

Ashish said...

उत्साहवर्धन के लिए आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद। आप सबके ब्लॉग भी देखे। बहुत ही आला हैं। आपसे सीखते रहने का मौका मिलता रहेगा। रश्मि जी word verification की परेशानी के लिए माफ़ कीजिएगा। आगे से ऐसी कोई दिक्कत न होने पाएगी।