Thursday, 10 November 2011

क्रूरता का यू-टर्न

कुछ साल पहले इंडियन एक्सप्रेस के लिए फ्रीलांसिंग करते हुए रामगोपाल बजाज के एक कविता पाठ सत्र में शिरकत करने का मौका बना ... हाल ही में उसकी ऑनलाइन रिपोर्ट अँग्रेज़ी  ब्लॉग पर डाली है। रंगमंच के उस अग्रणी कलाकार ने कहा था कि अज्ञेय उनके सबसे पसंदीदा लेखंकों में से हैं, उन्हीं की कई कविताएँ भी उन्होंने पढ़ीं। लेकिन एक कविता जिसने खासतौर पर मेरा ध्यान खींचा वह अज्ञेय की नहीं थी। उसी की एक लाइन मैंने अँग्रेज़ी में ट्रांसलेट करके हेडलाइन बनाई जो, सच कहूँ तो, कुछ गैरवाजिब-सी लग रही थी, लेकिन मैं उसे  बदलना नहीं चाहता था। देर शाम घर से स्टोरी फ़ाइल करने के बाद मैंने रात को डेस्क पर फ़ोन करके खास आग्रह किया कि हेडलाइन बदली न जाए ... मुझे लगा था कि उस शाम सबसे पते की बात शायद यही चेतावनी थी, जैसे पुराने एहदनामे के किसी नबी ने नबूवत की हो ... "क्रूरता तुम्हारी संस्कृति बन जाएगी"। बस एक बात का अफ़सोस आज तक बना रहा कि अपनी रिपोर्ट में मैंने न उस कविता का ज़िक्र किया और न बताया कि वह किस कवि की थी। सच कहूँ तो उस समय कवि का नाम रजिस्टर ही नहीं कर पाया था। लेकिन स्टोरी लिखते वक्त बस उसी की एक लाइन बार-बार याद आ रही थी। आज उस कोताही की भरपाई कर रहा हूँ। कविता थी "क्रूरता" और कवि थे कुमार अंबुज।

कविता के आज तक याद आते रहने का एक मुख्य कारण और भी था। सुनने वालों का रिएक्शन। जब कविता शुरू हुई और आधी पूरी हुई तो श्रोता बराबर सहमति की हुँकारी भरते रहे। मानो लेखक परिवर्तन लाने वाली किसी सृजनात्मक ताकत की उन्मुक्त अभिव्यक्ति की बात कर रहा हो। लेकिन जब कविता कुछ आगे बड़ी तो सुनने वाले कुछ असहज हुए, हुँकारें मानो पसीने की बूँदें बन पिघलने लगीं, सुनने वालों को  महसूस होने लगा कि जिस हिंसा को वह समर्थन कर रहे हैं वह अपनी पूरी विनाशकारी शक्ति के साथ वापिस उन्हीं को रौंदने आ रही है ... क्रूरता का यू-टर्न हो रहा है ...

कल अहमदाबाद की हुँकारियों पर लिखा था ... और आज यह खबर पढ़ी ...

खैर कविता देखी जाए।

क्रूरता/ कुमार अंबुज

तब आएगी क्रूरता
पहले हृदय में आएगी और चेहरे पर न दिखेगी
फिर घटित होगी धर्मग्रंथो की व्याख्या में
फिर इतिहास में और
भविष्यवाणियों में
फिर वह जनता का आदर्श हो जाएगी
....वह संस्कृति की तरह आएगी,
उसका कोई विरोधी नहीं होगा
कोशिश सिर्फ यह होगी
किस तरह वह अधिक सभ्य
और अधिक ऐतिहासिक हो
....यही ज्यादा संभव है कि वह आए
और लंबे समय तक हमें पता ही न चले उसका आना

Wednesday, 2 March 2011

जागृतिः एक लघु नाटिका




दो आँखों से देखी दुनिया
कुछ सीधी कुछ टेढ़ी दुनिया

कुछ तो गड़बड़ है मेरे भाई
दो आँखें पर समझ न पाईं

सच्ची बातें बोलनी होंगी
मन की आँखें खोलनी होंगी

शिक्षित होना फर्ज़ हमारा
शिक्षा है अधिकार हमारा

दृश्य 1
(राजू  और मनोज स्कूल का बस्ता उठाए जा रहे हैं, मदन उनका दोस्त उसे आवाज़ देता आता है)

मदनः
ए राजू, ए मनोज कहाँ जा रहा हो यार?
राजूः
स्कूल, और कहाँ?
मनोजः
तुम नहीं जा रहे क्या?
मदनः
अबे क्या करना स्कूल जाकर। वहाँ मास्टर जो पढ़ाता है वह समझ में तो आता नहीं और वह पिटाई करता है सो अलग। आज एक नई पिक्चर लगी है, चल देख कर आते हैं।
मनोजः
हाँ, हाँ चलो। चलो न भैया
राजूः
रुको मनोज। स्कूल चलो। मम्मी-पापा को पता चला तो बड़ी मुशिकल हो जाएगी।
मदनः
कौन परवाह करता है। हम तो आज़ाद लोग हैं। हम नहीं डरते किसी से। और पढ़-लिख कर क्या होने वाला है?
मनोजः
भैया कहते हैं पढ़-लिख कर ही नौकरी मिलेगी।
मदनः
नौकरी किस बेवकूफ़ को करनी है, मेरे पापा की तो दुकान है। वह मुझे ही तो संभालनी है। चल मनोज फ़िल्म देखते हैं। उसके बाद और मज़े करेंगे।
राजूः
मदन, हमारे माँ-बात की न तो दुकान है न फ़ैक्ट्री। हमें तो अपनी मेहनत से ही कुछ बनना है। और मैं तुम्हें अपने छोटे भाई को बिगाड़ने नहीं दूँगा। मुझे सब मालूम है कि तुम और तुम्हारे दोस्त छुप-छुप कर नशे करते हो। चल मनोज, स्कूल चल।
मदनः
अपने भाई की सुनेगा तो ज़िंदगी का कोई मज़ा नहीं ले सकता। चल मेरे साथ चल। नौकरी मैं तुझे दे दूँगा, अपनी दुकान पर।
मनोजः
चलो न भैया।
राजूः
नहीं मनोज। इसका क्या मालूम यह तो अपने माँ-बात का नाम डुबो देगा। दुकान भी बरबाद कर देगा। चल हम अपनी राह पर चलें।


दृश्य 2

(सरोज, मदन की माँ और राजकुमार, मदन के पिता अपने घर पर)
सरोजः
अजी सुनते हो। मदन के स्कूल से फिर शिकायत आई है। वह पेपरों में फेल हो गया। और कहते हैं वह स्कूल भी नहीं जाता।
राजकुमारः
अरे तू यूँ ही चिंता करती है मदन की अम्मा। जवान लड़के ऐसे ही होते हैं। और उसे कौन सा किसी की नौकरी करनी है। कुछ सालों में दुकान उसे ही संभालनी है।
सरोजः
तुम कुछ भी कहो लेकिन मुझे यह अच्छा नहीं लगता (कुछ देर रुक कर) सुनो, प्रतिभा ने आठवीं क्लास भी पास कर ली। अब नौंवी क्लास के लिए उसे बड़े स्कूल में दाखिला दिलवाना है।
राजकुमारः
मैंने तुम्हें पहले भी कहा है, मुझसे उसकी पढ़ाई की बात मत करना।
सरोजः
क्यों न करूँ?
राजकुमारः
लड़की को पढ़ा कर क्या करना है। कुछ ही देर में उसकी शादी कर देंगे। उसने गाँव जाकर घर का काम-काज ही तो देखना है। और मदन को तो मैं पढ़ा ही रहा हूँ।
सरोजः
अजीब हो तुम भी जो पढ़ना चाहती है उसे पढ़ाते नहीं और जो पढ़ता नहीं उसे कुछ अच्छी सीख नहीं देते। अब वह छोटा बच्चा नहीं रहा।

(प्रतिभा, मदन की बहन, दाखिल होती है)
प्रतिभाः
माँ, माँ, मेरी टीचर कह रही थी कि मुझे आगे पढ़ने के लिए वज़ीफ़ा मिल जाएगा। तुम्हें मेरी फ़ीस देने की भी ज़रूरत नहीं।
राजकुमारः
चुप कर। ये फ़ैसला मुझे करना है कि तू पढ़ेगी या नहीं।
प्रतिभाः
मुझे पढ़ना है पापा। टीचर कहती है मैं बहुत होशियार हूँ। और मदन का सारा होमवर्क भी मैं ही तो करती हूँ।

(एक लड़का तेज़ी से अंदर आता है)
लड़काः
अंकल, अंकल। मदन को पुलिस ने पकड़ लिया।
सबः
क्या
लड़काः
वह थियेटर के पीछे दोस्तों के साथ नशा कर रहा था। जल्दी चलिए अंकल

(लड़का और राजकुमार बाहर निकल जाते हैं)
सरोजः
मैंने इन्हें कितना कहा कि लड़को को संभाल लो, हाथ से निकल जाएगा लेकिन इनकी आँखों पर न जाने कैसा परदा पड़ा था। हे भगवान अब क्या होगा।



दृश्य 3
राजू और मनोज का घर, उनके माता-पिता, हीरालाल और पुष्पा उनके साथ हैं
राजूः
लेकिन पिता जी यह गलत है
हीरालालः
नहीं बेटा। दुनिया का चलन ऐसा ही है। हम गरीब लोग हैं हम कुछ नहीं कर सकते।
पुष्पाः
बेटा मुझे भी तो बताओ हुआ क्या
राजूः
माँ तुम जानती हो, आज जब मैं पिता जी को खाना देने गया तो मैंने क्या देखा।
पुष्पाः
क्या बेटा?
राजूः
आज जब वहाँ सबको तनखाह दी जा रही थी तो मैं भी पापा के साथ गया। वहाँ जिस कागज़ पर अँगूठा लगाया वहाँ लिखा था कि उन्हें 5,000 रुपये दिए जा रहे हैं जबकि पापा के हाथ में 2,500 ही आए।
पुष्पाः
सच बेटा। हमने तो कभी ये सोचा ही नहीं।
हीरालालः
हम अनपढ़ जो ठहरे। लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते।
राजूः
नहीं पापा, हम सब कुछ कर सकते हैं। आप अपने साथ के मज़दूरों को असलियत बताइए और आप मिल कर अपना हक माँगो।
पुष्पाः
राजू ठीक कहता है। आज यह पढ़-लिख कर इस काबिल बन गया है कि हमारे जन्म सुधार दे। जैसा यह कहता है वैसा करो।
हीरालालः
ठीक कहती हो राजू की माँ, मैं अभी सारे लोगों को इकट्ठा करता हूँ।


 आशीष अलेक्ज़ैंडर
(रविवार, 27 फ़रवरी 2011 को सेक्टर 53 चंडीगढ़ के सामुदायिक केंद्र में शिक्षा का अधिकार विषय पर आयोजित एक कार्यक्रम में स्थानीय बच्चों के साथ इस लघु नाटिका का मंचन किया गया।) 

Sunday, 2 January 2011

क्रिसमस मनाने का अर्थ

सुनिल सरदार
ब्रजरंजन मणि

उसका जन्म एक सुदूर गांव में हुआ। आज से करीब दो हज़ार साल पहले। एक मामूली किसान औरत का बेटा था वह। गाँव में ही पला-बढ़ा। कभी स्कूल-कॉलेज नहीं गया। तीस साल की उम्र तक वह गाँव में रहा और बढ़ई वगैरह का कामकाज ठौर-ठिकाना नहीं था। उसने कोई लंबी यात्रा नहीं की। उसने कुछ ऐसा नहीं किया जिसे अमूमन लोग महानता की कसौटी मानते हैं। अपने निराले जीवन और निराले शब्दों के अलावा उसकी कोई पहचान नहीं थी। इसके पहले कि लोग उसकी उदात्तता को जानते-समझते, कुछ लोग उसके जीवन और विचारों से बेतरह खफ़ा हो गए। उसके दोस्त भाग खड़े हुए। एक ने पहचानने से इनकार कर दिया। उसे दुश्मनों के हवाले कर दिया गया। उसे झूठे इलज़ामों में फँसा कर गुनहगार साबित कर दिया गया और दो चोरों के बीच सूली पर चढ़ा दिया गया। फिर उसे एक दोस्त द्वारा मुहैय्या किए गए कब्र में दफ़न कर दिया गया। लेकिन उसकी मार्मिक और उदात्त कहानी का अंत नहीं हुआ। बकौल यशायाह,

वह ईश्वर के सामने कोमल अंकुर के समान और सूखी भूमि से निकली जड़ के समान उठा। उसमें न रूप था, न सौंदर्य कि हम उसे देखते, न ही उसका स्वरूप ऐसा था कि हम उसके चाहते। उसे तुच्छ समझा गया और लोगों ने उसका तिरस्कार किया। वह दुखी आदमी था और दूसरों की पीड़ा से उसकी जान-पहचान थी। वह ऐसा आदमी था जिससे लोग मुँह फेर लेते हैं। उसे ठुकराया गया और हम उसकी कीमत न समझ सके। सच यह है कि उसने स्वयं हम लोगों की पीड़ा उठाई। हम लोगों की कुरूपता और बीमारियों को अपने ऊपर लिया। लेकिन हम लोगों ने उसे वाहियात समझा, ईश्वर द्वारा तिरस्कृत और प्रताड़ित समझा। लेकिन वह हमारे अपराधों के लिए लहू-लुहान हुआ, हमारे पापों के लिए कुचला गया। हमारी भलाई और शांति के लिए उसे यातना दी गई। उसके ज़ख्मों से, उस पर पड़ी मारों से हम चंगे हुए ... उसे सताया गया और दुःख दिया गया फिर भी उसने अपना मुँह न खोला ... (दूसरों के लिए) उसने अपनी जान न्यौछावर कर दी ... उसने बहुतों के पाप का बोझ स्वयं उठा लिया और अपराधियों को क्षमा करने के लिए विनती की ...
(यशायाह 53:2–12)

कितनी सदियाँ आईं और गईं और आज हम इक्कीसवीं सदी में खड़े हैं। लेकिन वह यानी ईसा मसीह करोड़ों लोगों के दिलो-दिमाग में ज़िंदा है—एक ऐसी रोशनी बनकर जिसे कोई आँधी-तूफ़ान और झंझावत बुझा नहीं पाता। आखिर क्या था उसमें कि समय के साथ उसका महत्त्व बढ़ता जा रहा है और क्यों नए-नए लोग आज भी मसीहा की शरण में आ रहे हैं।

भौतिक बदलावों ने, खासकर विज्ञान, तकनीकी और चिकित्सा के क्षेत्रों में जबर्दस्त तरक्की ने, मानो दुनिया का चेहरा बदल डाला है। लेकिन इससे दुनिया की असलियत नहीं बदल गई है। ईसा के समय की तरह लोग अभी भी शांति, सौहार्द और प्रेम के लिए तरस रहे हैं। कई पुरानी और नई परेशानियाँ जाने का नाम नहीं ले रहीं। क्योंकि आज भी हमारे आपसी और मानवीय रिश्तों में बहुत कुछ ऐसा है जो क्रूर और अमानवीय है। बेशुमार लोग अभी भी अन्याय, शोषण और हिंसा के कुचक्र में पिसे जा रहे हैं। जाति, नस्ल, वर्ग, जेंडर और मज़हब के नाम पर अभी भी हिंसा और प्रतिहिंसा का सिलसिला जारी है। आज की दुनिया में एक हर एक सुंदरता के साथ बहुत सारी क्रूरता और कुरूपताएँ हैं। आज की कहानी बहुत उलझी और जटिल है लेकिन एक चीज़ बहुत साफ़ है। पर्यावरण और सामाजिक गरीबी की त्रासदी विकराल होते जा रही है। हर देश के भीतर और देशों के बीच लोगों का आपसी अविश्वास, कलह और हिंसा जैसे बढ़े जा रहे हैं। वैसे भी जीवन कठिन है। बहुत सारे लोग शारीरिक, मानसिक और पारिवारिक स्थितियों के कारण मर्मांतक पीड़ा झेलते हैं। लेकिन इससे कहीं ज़्यादा संख्या ऐसे स्त्री, पुरुषों और बच्चों की है जिन्हें संस्थाबद्ध तरीके से उत्पीड़ित किया जाता है। लोकतांत्रिक कही जाने वाली दुनिया में अभी भी करोड़ों बच्चे हैं जो रोटी-कपड़ा-मकान और शिक्षा जैसे मूलभूत अधिकारों से वंचित हैं। मानव अधिकारों से बेदखल करोड़ों स्त्री-पुरुष गुलामी की सी स्थिति में जीन के लिए बाध्य हैं। इसके कारण बहुत हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण शायद यह है कि ईसा ने जिस प्रेम और मानवीय सहयोग का संदेश दिया था, वह पूरी मानव जाति की परंपरा नहीं बन पाई है। लोग जब तक अच्छे इनसान नहीं बनते, लोग जब तक भीतर से बदलते नहीं हैं, तब तक दुनिया में स्थाई शांति और सौहार्द नहीं आ सकता।

क्रिसमस आशा और उम्मीदों का त्यौहार है। निराशा पर आशा की विजय का संदेश इससे अभिन्न रूप से जुड़ा है। यह एक ऐसे मसीहा का जन्मदिन है जो कब्र से उठ खड़ा होता है—अपने लिए नहीं बल्कि तमाम मानव समाज को एक नया जीवन देने के लिए। क्रिसमस हमें इस बात का एहसास दिलाता है कि हमारे पास एक दिल है, एक आत्मा है जो बड़े-बड़े झंझावतों को झेल सकता है, कठिन से कठिन परीक्षा में खरा उतर सकता है। जिसमें प्रेम, त्याग और सहनशीलता की अपराजेय क्षमता है। सारी मानवीयता के लिए ईसा का असीम प्यार सभी मानवीयता को एक सूत्र में जोड़ती है। हमारे अंधकार और निराशा के क्षणों में अपने प्रेम और आशा के संदेश के साथ ईसा एक सच्चे मुक्तिदाता के रूप में उपस्थित होते हैं। वह हमें रोशनी और हौसला देते हैं। वह हमें सच्चाई और प्रेम का ऐसा रास्ता दिखलाते हैं जिस पर चलकर हम जीवन को सफल और सार्थक बना सकते हैं। ईसा हमें एक खूबसूरत ज़िंदगी के करीब लाते हैं जहाँ प्रेम और सौहार्द के साथ नए-नए किस्म की सुंदरता और सृजनशीलता संभव है।

क्रिसमस मनाने का सही अर्थ यह है कि हम ईसा के सुंदर मूल्य-मान्यताओं को अपने जीवन में उतारें जिसके लिए वह इस धरती पर आए, जीए और शहीद हुए। उनका जीवन और आचार-व्यवहार इस बात का साक्षी है कि जो गरीब हैं, ज़रूरतमंद और शोषित हैं वे ईश्वर के सबसे ज़्यादा करीब और प्यारे हैं। शोषित-उत्पीड़ितों का ईश्वरीय समावेश ईसाइयत की सबसे बड़ी खूबी है। ईसा का सबों के लिए मुकम्मल जीवन की कामना, और खासकर अमीर और ताकतवर लोगों की बजाय कमज़ोर, गरीब, परेशान हाल लोगों से उनका नज़दीकीपन, शोषणकारी और यथास्थितिवादी ताकतों को कमज़ोर करती है।

जहाँ सबको अपनापन और प्यार मिले, ऐसी दुनिया बनाने के लिए ईसा इस धरती पर आए थे। मूलतः ईसा ने हमें यह सिखलाया कि हम एक-दूसरे से प्रेम करें, एक-दूसरे से सुंदर रिश्ता बनाएँ। हम एक ऐसी दुनिया बनाएँ जिसमें कोई इनसान प्यार का मोहताज न हो। ईसा हमें समझाने आए थे कि जो तकलीफ़ में है, भूखे हैं, पराए और परेशान हैं, हम उनके करीब आएँ और उनकी मदद करें। इससे एक ऐसा खुशनुमा और सुंदर माहौल बनेगा जिसमें हर कोई अपनी पसंद की ज़िंदगी जी सकेगा। जब प्यार, सौहार्द और सहयोग का माहौल होगा तब हर किसी की भौतिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति होगी। लेकिन आपसी प्रेम और आत्मिक उन्नति एक समतामूलक और न्यायप्रिय समाज में ही संभव है। इसलिए ईसा चाहते थे कि गैर-बराबरी, अन्याय और शोषण खत्म हो ताकि दुनिया में प्रेम, शांति और सौहार्द कायम हों। इस मामले में उनका चिंतन-दर्शन बेबाक और दिन की तरह साफ़ है। उसका मर्म यानि जीवन का अर्थ एक प्यासे को पानी पिलाने में उद्घाटित होता है, बालू के एक कण में सृष्टि की अनंतकालीनता मापने में नहीं। सेवा और प्रेम की ऐसी ज़िंदगी हर कोई जी सकता है—यह कुछ खास लोगों की बपौती नहीं है। लेकिन अगर सब लोग ऐसी ज़िंदगी जीते हैं, तो धरती का कायाकल्प हो जाएगा—धरती पर स्वर्ग आ जाएगा। ईसा इसी अर्थ में धरती पर स्वर्ग लाना चाहते थे।

ईसा की विरासत पूरे मानव समाज की विरासत है। उनका रास्ता और उनकी शिक्षा सबों के लिए है—एक खुली किताब की तरह। उनका सम्मान करने का अर्थ है प्रेम, शांति और परस्पर सहयोग के रास्ते पर चलना। लेकिन जाति, नस्ल, वर्ग, जेंडर तथा विभिन्न धार्मिक, भाषाई और राजनीतिक तबकों में बंटे समाज में ईसा के आदर्श पर चलना एक दुरूह और चुनौतीपूर्ण काम है। क्योंकि प्रेम और शांति के लिए दुनिया को शोषणहीन बनाना ज़रूरी है। समता और न्याय के बिना अपनापन और मित्रता नहीं पनप सकती। सामाजिक शांति और सौहार्द शोषणकारी और हिंसक शक्तियों में निजात पाए बिना असंभव है।

शोषण हिंसा है—वह चाहे सीधे हो या लुके-छिपे, सामाजिक हो या आर्थिक, राजनीतिक हो या सांस्कृतिक। जाति, नस्ल, वर्ग, जेडर की धुरी पर कायम समाज में स्वाभाविक रूप से शोषण और हिंसा होती है और ऐसे समाज में शांति की कल्पना बेकार है। जो लोग सच में शांति चाहते हैं उन्हें शोषणकारी ताकतों के खिलाफ़ खड़ा होना होगा, लड़ना होगा।

निहित स्वार्थ और नैतिकता में स्वाभाविक रूप से विरोध है—दोनों एक साथ नहीं रह सकते। इसी तरह सत्ता और साधन पर कुछ लोगों का आधिपत्य और लोकतंत्र एक साथ नहीं चल सकते। शांति और मानवीयता के पक्षधर लोगों को निहित स्वार्थों के खिलाफ़ खड़ा होना होगा। वस्तुतः शोषणकारी तत्वों के खिलाफ़ खड़े लोग ही शांति और प्रेम के पुजारी हो सकते हैं। बाकी लोग जो कोरी शांति की दुहाई देते हैं लेकिन ज़ोर-जुल्म के खिलाफ़ नहीं बोलते-लड़ते, वे अमीर और शोषणकारी लोगों के साथ अशांति और हिंसा के पैरोकार हैं। एक भूखे बच्चे की तरफ़ रोटी फेंक देना शांति के लिए काफ़ी नहीं है, शांति के रास्त पर चलने का मतलब है उस व्यवस्था को नेस्तोनाबूद कर देना जो करोड़ों भूखे बच्चों को जन्म देती है। शांति-सौहार्द के लिए खड़े होने का मतलब है अमीर-उमरावों की ऐय्याशियों को दरकिनार कर गरीब बच्चों की जिंदगी में रोशनी लाने की कोशिश करना। जो शोषित हों, दलित हों, अन्याय के मारे हों, चाहे वह व्यक्ति हो या समाज, उसके पक्ष में खड़े होना और उसकी वकालत करना ईसा के हर मानने वालों का फ़र्ज़ होना चाहिए।

अछूत और अलग-अलग जाति-वर्ग के ब्राह्मणवादी प्रपंच और विभिन्नताओं का सम्मान एक ही चीज़ नहीं है। भिन्न-भिन्न लोगों कि भिन्न-भिन्न जीवनशैली, वेशभूषा, रंगरूप से भला किसे विरोध हो सकता है। सब लोग कभी एक तरह से नहीं रह सकते, सब लोगों के जीवन से अलग-अलग आशा-अपेक्षाएँ होती हैं और यह एक अच्छी बात है। झमेला और झगड़ा तब शुरू होता है जब कुछ होशियार लोग अपनी सफलता और उत्कृष्टता के लिए दूसरों को कुचलकर आगे बढ़ते हैं। जिस समाज में अवसर की समानता नहीं हो, वहाँ अपनी प्रतिभा और उपलब्धियों का इश्तहारी बखान करना हाशिए पर ढकेले गए लोगों के साथ क्रूर मज़ाक होता है। क्योंकि ऐसी उपलब्धियाँ प्रतिभा से नहीं, विशेषाधिकार से हासिल करवाई जाती हैं। इस घिनौनी प्रक्रिया में बहुतेरे लोगों को बाहर रखा जाता है और इस सामाजिक अन्याय में शोषक और शोषित दोनों अमानवीय और बर्बर होने के लिए अभिशप्त होते हैं।

इन्हीं वजहों से ईश्वरीय प्रेम को ईसा ने बिलकुल नए रूप में सामने रखा और इस पर ज़ोर दिया कि ईश्वर दीन-दुखियों से असीम प्यार करता है। यह अकारण नहीं है कि ईसा गरीब और उत्पीड़ित लोगों के करीब आते हैं। जो कोई शोषित-उत्पीड़ित है, ईसा उसके पास पहुँचते हैं। उनका यह प्रेम यथास्थिति को अस्थिर और अशांत करता है, उसकी चौहद्दियों को लाँघकर शोषणकारी व्यवस्था को चुनौती देता है। उनका पूरा जीवन इस बात की तरफ़ साफ़-साफ़ इशारा कतरा है कि पीड़ित मानवता को मुक्ति के बिना शांति और सौहार्द की स्थापना असंभव है। दूसरे शब्दों में, दुनिया जब तक शोषक और शोषित, विजेता और विजित के दायरे में विभाजित है, तब तक सामाजिक समरसता असंभव है। इसीलिए ईसा सबों को साथ लेकर चलने की शिक्षा देते हैं। विशेषकर उत्पीड़ितों के साथ एकता और हर किसी का सब से एकता उनकी नैतिकता के केंद्र में है। अपने प्रखर और सक्रिय रूप में, यह हमें शोषण के खिलाफ़ बगावत करने का हौसला देता है। अपने निष्क्रिय रूप में, यह हमें पीड़ितों की पीड़ा में शरीक होने का आह्वान करता है। इन दोनों रूपों में वह हमें उपेक्षित, अपमानित और दबे-कुचले लोगों के साथ देने का इशारा करता है। यह हमें नसीहत देता है कि दूसरे से न्याय और प्यार करना स्वयं हमारी भलाई की लिए ज़रूरी शर्त है।

प्रार्थना चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक, हमें प्रेम और सच्चाई पर आधारित काम करने के लिए प्रेरित करता है। ईसा ने बिलकुल सही कहा था कि सच्चाई हमें मुक्त करेगी, लेकिन सच्चाई की तलाश और उस पर अमल एक मुश्किल और चुनौती भरा काम है। लेकिन अगर हम इस चुनौती को स्वीकार करते हैं तो हम सही मायने में क्रिसमस मना रहे हैं। मेरी क्रिसमस!

***

दलित-पीड़ितों का महानायक, सभी महानों का सर्वोच्च, महान मुनि और सच का प्रेमी, बलि राजा (ईसा मसीह) इस धरती पर आए ... सच्चे और पवित्र ज्ञान के साथ और सभी को इसमें बराबरी का हक दिया ... उन्होंने गरीबों और उत्पीड़ितों को गुलामी की ज़ंजीर से बाहर लाने का महान काम शुरू किया ... और इस धरती पर स्वर्ग लाने के लिए ज़बर्दस्त संघर्ष किया।
गुलागिरी में महात्मा फुले