जब पिछले साल मई के
महीने में मैं इलाहाबाद पहुँचा तो अकादमिक सत्र बस समाप्त ही हो रहा था। मेरी पहली
कुछ शामें डॉ. सैम हिगिनबॉटम की किताब “द गॉस्पेल ऐंड द प्लाओ” पढ़ने में बीतीं। यह किताब काफ़ी समय से मेरे पास थी
लेकिन जब मैंने अंततः उस महान मिशनरी द्वारा स्थापित इस संस्थान को ज्वाइन किया तब
मैं इसे पूरे का पूरा पढ़ पाया। किताब पढ़ने के बाद मैंने पाया कि यह अब तक की
मेरी पढ़ी गई सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तकों में से एक है। मैं डॉ. हिगिनबॉटम की
आत्मकथा से परिचित था लेकिन इस छोटी किताब में कुछ अनोखी ही बात थी और इसने मुझ पर
गहरा असर डाला। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह एक महान पुस्तक है। इसकी
लेखन शैली बहुत ही सरल और इसका संदेश बहुत ही गहरा। यह किताब लगभग सौ साल पहले में
प्रकाशित हुई थी, लेकिन भारत की ज़रूरतों के लिए आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी
1921 में। यह प्रासंगिक इसलिए है क्योंकि यह किताब बहुत ही ताज़ा-तरीन ढंग से अपने
लोगों के लिए परमेश्वर की इच्छा को प्रस्तुत करती है—व्यापक आशीषें।
जब परमेश्वर साढ़े तीन
हज़ार साल पहले इब्रानियों को मिस्र देश की गुलामी से निकाल कर लाया तो उसने कहा
कि वह उन लोगों को “वाचा की भूमि” में ले जाएगा—भूमि जहाँ दूध और मधु की धाराएँ बहती
हैं (निर्गमन 3:17)। परमेश्वर ने ठाना था कि वह उन्हें मिस्र में उनकी
शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार की गुलामियों से आज़ाद करवाए। और परमेश्वर चाहता
था कि उन्हें शारीरिक और आत्मिक दोनों रीतियों से बरकत दे।
परमेश्वर की योजना में
आत्मिक आशीषें और भौतिक समृद्धि साथ-साथ चलती हैं। चूंकि परमेश्वर हमारी शारीरिक
और आत्मिक भूख की परवाह करता है, उसकी व्यापक आशीषों में हमारे शरीरों और आत्मा
दोनों की गणना होती है।
जब सैम हिगिनबॉटम
इलाहाबाद में आए तो उन्होंने सोचा था कि उनकी पहली ज़िम्मेवारी यीशु मसीह की इंजील
अर्थात् सुसमाचार का प्रचार करना है, लेकिन गरीब काश्तकारों और भूमिहीन
मज़दूरों के हालात देख कर उन्हें परमेश्वर के व्यापक मिशन का बहुत ही सूक्ष्म
दर्शन हुआ। जल्द ही उन्होंने समझ लिया कि उनके मिशन में गरीबों और भूख-प्यासे
लोगों की देखभाल करना भी शामिल होगा;
जल्द ही उन्होंने समझ
लिया कि भारत को सुसमाचार के साथ-साथ किसानी की उन्नत तकनीकों की भी ज़रूरत है—भारत
को गॉस्पेल एंड द प्लाओ (सुसमाचार और हल) दोनों की ज़रूरत है।
इस प्रकार एक कृषि
संस्थान के महान स्वप्न ने जन्म लिया, ऐसा संस्थान जो भारत के दीनों को परमेश्वर
के राज्य की आशीषों का उत्तराधिकारी बनने में सहायक होगा। साल 1910 में इलाहाबाद
कृषि संस्थान की स्थापना हुई। इस परिसर में एक चैपल भी था जो इस बात को रेखांकित
करता है कि सुसमाचार और किसानी साथ-साथ चलेंगे।
अब यह संस्थान सौ साल
से पुराना हो चला है। अब यह डिग्री देने वाला मान्य विश्वविद्यालय बन चुका है।
इलाहाबाद और उत्तर प्रदेश में यह प्रकाश स्तंभ की भांति
खड़ा है। साल 2010 में विश्वविद्यालय के प्रबंधन ने बहुत ही समझदारी-भरा निर्णय
लिया और विश्वविद्यालय का नाम इसके संस्थापक के नाम पर रख दिया। इलाहाबाद कृषि
संस्थान आज सैम हिगिनबॉटम इंस्टिट्यूट ऑफ़ एग्रीकल्चर, टेक्नॉलोजी एंड सांइसेज़ के
नाम से जाना जाता है। यह दुनिया को गवाही है कि सुसमाचार और हल की धर्मविज्ञान
समाज के लिए क्या-क्या कर सकता है।
यह संस्थान डॉ. सैम
हिगिनबॉटम की यादगार को ज़िंदा रखे हुए है। लेकिन उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात
है कि यह उनके दर्शन को ज़िंदा रखे हुए है। और सौभाग्यवश, डॉ. सैम हिगिनबॉटम ने दो
किताबें लिखी थीं जिसने इस कार्य को आसान कर दिया था। “द गॉस्पेल एंड द प्लाओ” तथा उनकी आत्मकथा “सैम हिगिनबॉटम, फ़ार्मर: एन ऑटोबायोग्राफ़ी; 1949” दो ऐसे स्तंभ हैं जिन
पर उनका दर्शन बहुत ही मज़बूती से टिका हुआ है।
कुछ लोगों को यह
अतिशयोक्ति लग सकती है, लेकिन मेरा मानना है कि इन दो किताबों का लिखना इस संस्थान
की स्थापना से किसी भी लिहाज़ से कम नहीं है। इस विश्वविद्यालय के वर्तमान मुखिया,
आदरणीय कुलपति जी ने अकसर—निजी और सार्वजनिक तौर पर—डॉ. हिगिनबॉटम की इस लिखित
विरासत के प्रभाव को स्वीकार किया है। इन दो किताबों ने मोस्ट रेव्ह. प्रोफ़ेसर
आर. बी. लाल को मिले दर्शन का पुष्टीकरण किया और संस्था के नवीनीकरण के उनके इरादे
को और मज़बूत किया।
दरअसल यह संस्थान
हार्डवेयर था और जब इसमें सही सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया गया तो वह वाकई
फलने-फूलने लगा।
वचन में ताकत है। और
वचन को लिखने से वह ताकत आने वाली पीढ़ियों को भी हासिल होती है। जैसा कि पहले कहा
गया, जब परमेश्वर इब्रानियों को गुलामी से छुड़ा ला रहे था, तो उसने उन्हें अपना
वचन, अपनी आज्ञाएँ, अपने नियम दिए। और इन पुराने गुलामों को निर्देश दिया गया कि
इन सबको लिख लें और अपनी अगली पीढ़ी को मीरास में दें। क्योंकि परमेश्वर की आशीषों
को पाना और उन्हें बरकरार रखने के लिए छुड़ाए गए गुलामों को उन आज्ञाओं को मानना
ज़रूरी था। मुक्त किए गए गुलामों से कहा गया कि अब उन्हें एक नए ढंग से अपने आपको
संगठित करना है। उन्हें अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, कबीलाई और राष्ट्रीय जीवन को
परमेश्वर के नियमों के इर्द-गिर्द बुनना है। उन्हें किसी व्यक्ति, राजा, आदर्श या
प्रतिमा के नहीं बल्कि मूसा को मिले लिखित वचनों के आस-पास अपने आपको संगठित करना
है। चूंकि आदि में वचन था (यूहन्ना 1:1), वचन को इस नए समुदाय के केंद्र में रखना होगा। संगठन का केवल यहीं ढंग
सुनिश्चित करेगा कि उन्हें वे बरकतें मिलती रहें जिसका उनसे वादा किया गया है।
यह वह आज्ञा, और वे विधियाँ और नियम हैं जो तुम्हें सिखाने की तुम्हारे परमेश्वर यहोवा ने आज्ञा दी है, कि तुम उन्हें उस देश में मानो जिसके अधिकारी होने को पार जाने पर हो; और तू और तेरा बेटा और तेरा पोता यहोवा का भय मानते हुए उसकी उन सब विधियों और आज्ञाओं पर, जो मैं तुझे सुनाता हूँ, अपने जीवन भर चलते रहें, जिससे तू बहुत दिनों तक बना रहे। हे इस्राएल, सुन, और ऐसा ही करने की चौकसी कर; इसलिए कि तेरा भला हो, और तेरे पितरों के परमेश्वर यहोवा के वचन के अनुसार उस देश में जहाँ दूध और मधु की धाराएँ बहती हैं तुम बहुत हो जाओ। (व्यवस्थाविवरण 6:1–3)
यह नियम नई ज़मीन पर
उनके नए जीवन के लिए सॉफ़्टवेयर थे। और डॉ. हिगिनबॉटम की पुस्तकें संस्थान को फिर
से नया करने का सॉफ़्टवेयर थीं। और संस्थान के विश्वासयोग्य सेवकों ने प्रार्थना
और पवित्रशास्त्र को नज़दीकी से पढ़ने के द्वारा इस सॉफ़्टवेयर को एक्टीवेट किया।
लिखित वचन—चाहे वह शास्त्र का हो या साक्षी की—उसमें ताकत होती है।
परमेश्वर ने हमें अपने
स्वरूप में बनाया है (उत्पत्ति 1:26-27)। यीशु ने हमें परमेश्वर को पिता कहना सिखाया है (मत्ति 6:9) और कहा है कि पुत्र वही करता है
जो वह अपने पिता को करते देखता है (यूहन्ना 5:19)। परमेश्वर लिखता है। हमें भी उसका लिखा वचन पढ़ना
है। लेकिन उसका अनुकरण करते हुए हमें भी अपने स्वर्गीय पिता के समान लिखना है।
एक समुदाय के जीवन में
लिखित वचन का क्या ही केंद्रीय स्थान है, तेजस्वी जीवन (रेडियंट लाइफ़) पत्रिका
उसी का प्रतीक है। परमेश्वर ने जो विविध आशीषें यीशु दरबार के इर्द-गिर्द बने
समुदाय को—बल्कि उससे भी आगे के समुदाय को—दी हैं, यह पत्रिका उनका लेखा रखने का
प्रयास है। यह पत्रिका एक ऐसा मंच भी बनना चाहती है जो लेखकों, कवियों,
इतिहासकारों को उनकी साक्षी सहेजने का मौका दे। पत्रिका विचारों के आदान-प्रदान
में भी सहायक होने का प्रयास करती है जिससे मसीह यीशु के अनुयायी और मसीह की देह,
अर्थात् कलीसिया मज़बूत हो—और यह आशा करती है जो-जो आशीषें वे प्राप्त करते हैं
उनका लेखा रखे और उन्हें बढ़ावा दे।
पत्रिका का प्रकाशन
कुछ अंतराल के बाद फिर से शुरू हो रहा है। और जब यह पत्रिका प्रेस में जा रही है
तो यीशु दरबार के संस्थापक बिशप मोस्ट रेव्ह प्रो. आर. बी. लाल के जीवन के एक
महत्त्वपूर्ण पढ़ाव को पार कर रहें और अपना साठवां
जन्मदिन मना रहे हैं। हम उनके लंबे और स्वस्थ जीवन की कामना करते हैं। इस अंक में
शामिल किया गया उनका संदेश इसी बात की गवाह दे रहा है कि इस संस्थान के जीवन में
प्रार्थना की महान सामर्थ्य और परमेश्वर के वचन का क्या महत्त्व है। हमारी
प्रार्थना है कि हमारे पाठक परमेश्वर के इस दास के जीवन से प्रेरणा प्राप्त करें।
(संपादकीय, तेजस्वी जीवन, Vol 9, Issue 1)