Wednesday, 2 March 2011

जागृतिः एक लघु नाटिका




दो आँखों से देखी दुनिया
कुछ सीधी कुछ टेढ़ी दुनिया

कुछ तो गड़बड़ है मेरे भाई
दो आँखें पर समझ न पाईं

सच्ची बातें बोलनी होंगी
मन की आँखें खोलनी होंगी

शिक्षित होना फर्ज़ हमारा
शिक्षा है अधिकार हमारा

दृश्य 1
(राजू  और मनोज स्कूल का बस्ता उठाए जा रहे हैं, मदन उनका दोस्त उसे आवाज़ देता आता है)

मदनः
ए राजू, ए मनोज कहाँ जा रहा हो यार?
राजूः
स्कूल, और कहाँ?
मनोजः
तुम नहीं जा रहे क्या?
मदनः
अबे क्या करना स्कूल जाकर। वहाँ मास्टर जो पढ़ाता है वह समझ में तो आता नहीं और वह पिटाई करता है सो अलग। आज एक नई पिक्चर लगी है, चल देख कर आते हैं।
मनोजः
हाँ, हाँ चलो। चलो न भैया
राजूः
रुको मनोज। स्कूल चलो। मम्मी-पापा को पता चला तो बड़ी मुशिकल हो जाएगी।
मदनः
कौन परवाह करता है। हम तो आज़ाद लोग हैं। हम नहीं डरते किसी से। और पढ़-लिख कर क्या होने वाला है?
मनोजः
भैया कहते हैं पढ़-लिख कर ही नौकरी मिलेगी।
मदनः
नौकरी किस बेवकूफ़ को करनी है, मेरे पापा की तो दुकान है। वह मुझे ही तो संभालनी है। चल मनोज फ़िल्म देखते हैं। उसके बाद और मज़े करेंगे।
राजूः
मदन, हमारे माँ-बात की न तो दुकान है न फ़ैक्ट्री। हमें तो अपनी मेहनत से ही कुछ बनना है। और मैं तुम्हें अपने छोटे भाई को बिगाड़ने नहीं दूँगा। मुझे सब मालूम है कि तुम और तुम्हारे दोस्त छुप-छुप कर नशे करते हो। चल मनोज, स्कूल चल।
मदनः
अपने भाई की सुनेगा तो ज़िंदगी का कोई मज़ा नहीं ले सकता। चल मेरे साथ चल। नौकरी मैं तुझे दे दूँगा, अपनी दुकान पर।
मनोजः
चलो न भैया।
राजूः
नहीं मनोज। इसका क्या मालूम यह तो अपने माँ-बात का नाम डुबो देगा। दुकान भी बरबाद कर देगा। चल हम अपनी राह पर चलें।


दृश्य 2

(सरोज, मदन की माँ और राजकुमार, मदन के पिता अपने घर पर)
सरोजः
अजी सुनते हो। मदन के स्कूल से फिर शिकायत आई है। वह पेपरों में फेल हो गया। और कहते हैं वह स्कूल भी नहीं जाता।
राजकुमारः
अरे तू यूँ ही चिंता करती है मदन की अम्मा। जवान लड़के ऐसे ही होते हैं। और उसे कौन सा किसी की नौकरी करनी है। कुछ सालों में दुकान उसे ही संभालनी है।
सरोजः
तुम कुछ भी कहो लेकिन मुझे यह अच्छा नहीं लगता (कुछ देर रुक कर) सुनो, प्रतिभा ने आठवीं क्लास भी पास कर ली। अब नौंवी क्लास के लिए उसे बड़े स्कूल में दाखिला दिलवाना है।
राजकुमारः
मैंने तुम्हें पहले भी कहा है, मुझसे उसकी पढ़ाई की बात मत करना।
सरोजः
क्यों न करूँ?
राजकुमारः
लड़की को पढ़ा कर क्या करना है। कुछ ही देर में उसकी शादी कर देंगे। उसने गाँव जाकर घर का काम-काज ही तो देखना है। और मदन को तो मैं पढ़ा ही रहा हूँ।
सरोजः
अजीब हो तुम भी जो पढ़ना चाहती है उसे पढ़ाते नहीं और जो पढ़ता नहीं उसे कुछ अच्छी सीख नहीं देते। अब वह छोटा बच्चा नहीं रहा।

(प्रतिभा, मदन की बहन, दाखिल होती है)
प्रतिभाः
माँ, माँ, मेरी टीचर कह रही थी कि मुझे आगे पढ़ने के लिए वज़ीफ़ा मिल जाएगा। तुम्हें मेरी फ़ीस देने की भी ज़रूरत नहीं।
राजकुमारः
चुप कर। ये फ़ैसला मुझे करना है कि तू पढ़ेगी या नहीं।
प्रतिभाः
मुझे पढ़ना है पापा। टीचर कहती है मैं बहुत होशियार हूँ। और मदन का सारा होमवर्क भी मैं ही तो करती हूँ।

(एक लड़का तेज़ी से अंदर आता है)
लड़काः
अंकल, अंकल। मदन को पुलिस ने पकड़ लिया।
सबः
क्या
लड़काः
वह थियेटर के पीछे दोस्तों के साथ नशा कर रहा था। जल्दी चलिए अंकल

(लड़का और राजकुमार बाहर निकल जाते हैं)
सरोजः
मैंने इन्हें कितना कहा कि लड़को को संभाल लो, हाथ से निकल जाएगा लेकिन इनकी आँखों पर न जाने कैसा परदा पड़ा था। हे भगवान अब क्या होगा।



दृश्य 3
राजू और मनोज का घर, उनके माता-पिता, हीरालाल और पुष्पा उनके साथ हैं
राजूः
लेकिन पिता जी यह गलत है
हीरालालः
नहीं बेटा। दुनिया का चलन ऐसा ही है। हम गरीब लोग हैं हम कुछ नहीं कर सकते।
पुष्पाः
बेटा मुझे भी तो बताओ हुआ क्या
राजूः
माँ तुम जानती हो, आज जब मैं पिता जी को खाना देने गया तो मैंने क्या देखा।
पुष्पाः
क्या बेटा?
राजूः
आज जब वहाँ सबको तनखाह दी जा रही थी तो मैं भी पापा के साथ गया। वहाँ जिस कागज़ पर अँगूठा लगाया वहाँ लिखा था कि उन्हें 5,000 रुपये दिए जा रहे हैं जबकि पापा के हाथ में 2,500 ही आए।
पुष्पाः
सच बेटा। हमने तो कभी ये सोचा ही नहीं।
हीरालालः
हम अनपढ़ जो ठहरे। लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते।
राजूः
नहीं पापा, हम सब कुछ कर सकते हैं। आप अपने साथ के मज़दूरों को असलियत बताइए और आप मिल कर अपना हक माँगो।
पुष्पाः
राजू ठीक कहता है। आज यह पढ़-लिख कर इस काबिल बन गया है कि हमारे जन्म सुधार दे। जैसा यह कहता है वैसा करो।
हीरालालः
ठीक कहती हो राजू की माँ, मैं अभी सारे लोगों को इकट्ठा करता हूँ।


 आशीष अलेक्ज़ैंडर
(रविवार, 27 फ़रवरी 2011 को सेक्टर 53 चंडीगढ़ के सामुदायिक केंद्र में शिक्षा का अधिकार विषय पर आयोजित एक कार्यक्रम में स्थानीय बच्चों के साथ इस लघु नाटिका का मंचन किया गया।) 

Sunday, 2 January 2011

क्रिसमस मनाने का अर्थ

सुनिल सरदार
ब्रजरंजन मणि

उसका जन्म एक सुदूर गांव में हुआ। आज से करीब दो हज़ार साल पहले। एक मामूली किसान औरत का बेटा था वह। गाँव में ही पला-बढ़ा। कभी स्कूल-कॉलेज नहीं गया। तीस साल की उम्र तक वह गाँव में रहा और बढ़ई वगैरह का कामकाज ठौर-ठिकाना नहीं था। उसने कोई लंबी यात्रा नहीं की। उसने कुछ ऐसा नहीं किया जिसे अमूमन लोग महानता की कसौटी मानते हैं। अपने निराले जीवन और निराले शब्दों के अलावा उसकी कोई पहचान नहीं थी। इसके पहले कि लोग उसकी उदात्तता को जानते-समझते, कुछ लोग उसके जीवन और विचारों से बेतरह खफ़ा हो गए। उसके दोस्त भाग खड़े हुए। एक ने पहचानने से इनकार कर दिया। उसे दुश्मनों के हवाले कर दिया गया। उसे झूठे इलज़ामों में फँसा कर गुनहगार साबित कर दिया गया और दो चोरों के बीच सूली पर चढ़ा दिया गया। फिर उसे एक दोस्त द्वारा मुहैय्या किए गए कब्र में दफ़न कर दिया गया। लेकिन उसकी मार्मिक और उदात्त कहानी का अंत नहीं हुआ। बकौल यशायाह,

वह ईश्वर के सामने कोमल अंकुर के समान और सूखी भूमि से निकली जड़ के समान उठा। उसमें न रूप था, न सौंदर्य कि हम उसे देखते, न ही उसका स्वरूप ऐसा था कि हम उसके चाहते। उसे तुच्छ समझा गया और लोगों ने उसका तिरस्कार किया। वह दुखी आदमी था और दूसरों की पीड़ा से उसकी जान-पहचान थी। वह ऐसा आदमी था जिससे लोग मुँह फेर लेते हैं। उसे ठुकराया गया और हम उसकी कीमत न समझ सके। सच यह है कि उसने स्वयं हम लोगों की पीड़ा उठाई। हम लोगों की कुरूपता और बीमारियों को अपने ऊपर लिया। लेकिन हम लोगों ने उसे वाहियात समझा, ईश्वर द्वारा तिरस्कृत और प्रताड़ित समझा। लेकिन वह हमारे अपराधों के लिए लहू-लुहान हुआ, हमारे पापों के लिए कुचला गया। हमारी भलाई और शांति के लिए उसे यातना दी गई। उसके ज़ख्मों से, उस पर पड़ी मारों से हम चंगे हुए ... उसे सताया गया और दुःख दिया गया फिर भी उसने अपना मुँह न खोला ... (दूसरों के लिए) उसने अपनी जान न्यौछावर कर दी ... उसने बहुतों के पाप का बोझ स्वयं उठा लिया और अपराधियों को क्षमा करने के लिए विनती की ...
(यशायाह 53:2–12)

कितनी सदियाँ आईं और गईं और आज हम इक्कीसवीं सदी में खड़े हैं। लेकिन वह यानी ईसा मसीह करोड़ों लोगों के दिलो-दिमाग में ज़िंदा है—एक ऐसी रोशनी बनकर जिसे कोई आँधी-तूफ़ान और झंझावत बुझा नहीं पाता। आखिर क्या था उसमें कि समय के साथ उसका महत्त्व बढ़ता जा रहा है और क्यों नए-नए लोग आज भी मसीहा की शरण में आ रहे हैं।

भौतिक बदलावों ने, खासकर विज्ञान, तकनीकी और चिकित्सा के क्षेत्रों में जबर्दस्त तरक्की ने, मानो दुनिया का चेहरा बदल डाला है। लेकिन इससे दुनिया की असलियत नहीं बदल गई है। ईसा के समय की तरह लोग अभी भी शांति, सौहार्द और प्रेम के लिए तरस रहे हैं। कई पुरानी और नई परेशानियाँ जाने का नाम नहीं ले रहीं। क्योंकि आज भी हमारे आपसी और मानवीय रिश्तों में बहुत कुछ ऐसा है जो क्रूर और अमानवीय है। बेशुमार लोग अभी भी अन्याय, शोषण और हिंसा के कुचक्र में पिसे जा रहे हैं। जाति, नस्ल, वर्ग, जेंडर और मज़हब के नाम पर अभी भी हिंसा और प्रतिहिंसा का सिलसिला जारी है। आज की दुनिया में एक हर एक सुंदरता के साथ बहुत सारी क्रूरता और कुरूपताएँ हैं। आज की कहानी बहुत उलझी और जटिल है लेकिन एक चीज़ बहुत साफ़ है। पर्यावरण और सामाजिक गरीबी की त्रासदी विकराल होते जा रही है। हर देश के भीतर और देशों के बीच लोगों का आपसी अविश्वास, कलह और हिंसा जैसे बढ़े जा रहे हैं। वैसे भी जीवन कठिन है। बहुत सारे लोग शारीरिक, मानसिक और पारिवारिक स्थितियों के कारण मर्मांतक पीड़ा झेलते हैं। लेकिन इससे कहीं ज़्यादा संख्या ऐसे स्त्री, पुरुषों और बच्चों की है जिन्हें संस्थाबद्ध तरीके से उत्पीड़ित किया जाता है। लोकतांत्रिक कही जाने वाली दुनिया में अभी भी करोड़ों बच्चे हैं जो रोटी-कपड़ा-मकान और शिक्षा जैसे मूलभूत अधिकारों से वंचित हैं। मानव अधिकारों से बेदखल करोड़ों स्त्री-पुरुष गुलामी की सी स्थिति में जीन के लिए बाध्य हैं। इसके कारण बहुत हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण शायद यह है कि ईसा ने जिस प्रेम और मानवीय सहयोग का संदेश दिया था, वह पूरी मानव जाति की परंपरा नहीं बन पाई है। लोग जब तक अच्छे इनसान नहीं बनते, लोग जब तक भीतर से बदलते नहीं हैं, तब तक दुनिया में स्थाई शांति और सौहार्द नहीं आ सकता।

क्रिसमस आशा और उम्मीदों का त्यौहार है। निराशा पर आशा की विजय का संदेश इससे अभिन्न रूप से जुड़ा है। यह एक ऐसे मसीहा का जन्मदिन है जो कब्र से उठ खड़ा होता है—अपने लिए नहीं बल्कि तमाम मानव समाज को एक नया जीवन देने के लिए। क्रिसमस हमें इस बात का एहसास दिलाता है कि हमारे पास एक दिल है, एक आत्मा है जो बड़े-बड़े झंझावतों को झेल सकता है, कठिन से कठिन परीक्षा में खरा उतर सकता है। जिसमें प्रेम, त्याग और सहनशीलता की अपराजेय क्षमता है। सारी मानवीयता के लिए ईसा का असीम प्यार सभी मानवीयता को एक सूत्र में जोड़ती है। हमारे अंधकार और निराशा के क्षणों में अपने प्रेम और आशा के संदेश के साथ ईसा एक सच्चे मुक्तिदाता के रूप में उपस्थित होते हैं। वह हमें रोशनी और हौसला देते हैं। वह हमें सच्चाई और प्रेम का ऐसा रास्ता दिखलाते हैं जिस पर चलकर हम जीवन को सफल और सार्थक बना सकते हैं। ईसा हमें एक खूबसूरत ज़िंदगी के करीब लाते हैं जहाँ प्रेम और सौहार्द के साथ नए-नए किस्म की सुंदरता और सृजनशीलता संभव है।

क्रिसमस मनाने का सही अर्थ यह है कि हम ईसा के सुंदर मूल्य-मान्यताओं को अपने जीवन में उतारें जिसके लिए वह इस धरती पर आए, जीए और शहीद हुए। उनका जीवन और आचार-व्यवहार इस बात का साक्षी है कि जो गरीब हैं, ज़रूरतमंद और शोषित हैं वे ईश्वर के सबसे ज़्यादा करीब और प्यारे हैं। शोषित-उत्पीड़ितों का ईश्वरीय समावेश ईसाइयत की सबसे बड़ी खूबी है। ईसा का सबों के लिए मुकम्मल जीवन की कामना, और खासकर अमीर और ताकतवर लोगों की बजाय कमज़ोर, गरीब, परेशान हाल लोगों से उनका नज़दीकीपन, शोषणकारी और यथास्थितिवादी ताकतों को कमज़ोर करती है।

जहाँ सबको अपनापन और प्यार मिले, ऐसी दुनिया बनाने के लिए ईसा इस धरती पर आए थे। मूलतः ईसा ने हमें यह सिखलाया कि हम एक-दूसरे से प्रेम करें, एक-दूसरे से सुंदर रिश्ता बनाएँ। हम एक ऐसी दुनिया बनाएँ जिसमें कोई इनसान प्यार का मोहताज न हो। ईसा हमें समझाने आए थे कि जो तकलीफ़ में है, भूखे हैं, पराए और परेशान हैं, हम उनके करीब आएँ और उनकी मदद करें। इससे एक ऐसा खुशनुमा और सुंदर माहौल बनेगा जिसमें हर कोई अपनी पसंद की ज़िंदगी जी सकेगा। जब प्यार, सौहार्द और सहयोग का माहौल होगा तब हर किसी की भौतिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति होगी। लेकिन आपसी प्रेम और आत्मिक उन्नति एक समतामूलक और न्यायप्रिय समाज में ही संभव है। इसलिए ईसा चाहते थे कि गैर-बराबरी, अन्याय और शोषण खत्म हो ताकि दुनिया में प्रेम, शांति और सौहार्द कायम हों। इस मामले में उनका चिंतन-दर्शन बेबाक और दिन की तरह साफ़ है। उसका मर्म यानि जीवन का अर्थ एक प्यासे को पानी पिलाने में उद्घाटित होता है, बालू के एक कण में सृष्टि की अनंतकालीनता मापने में नहीं। सेवा और प्रेम की ऐसी ज़िंदगी हर कोई जी सकता है—यह कुछ खास लोगों की बपौती नहीं है। लेकिन अगर सब लोग ऐसी ज़िंदगी जीते हैं, तो धरती का कायाकल्प हो जाएगा—धरती पर स्वर्ग आ जाएगा। ईसा इसी अर्थ में धरती पर स्वर्ग लाना चाहते थे।

ईसा की विरासत पूरे मानव समाज की विरासत है। उनका रास्ता और उनकी शिक्षा सबों के लिए है—एक खुली किताब की तरह। उनका सम्मान करने का अर्थ है प्रेम, शांति और परस्पर सहयोग के रास्ते पर चलना। लेकिन जाति, नस्ल, वर्ग, जेंडर तथा विभिन्न धार्मिक, भाषाई और राजनीतिक तबकों में बंटे समाज में ईसा के आदर्श पर चलना एक दुरूह और चुनौतीपूर्ण काम है। क्योंकि प्रेम और शांति के लिए दुनिया को शोषणहीन बनाना ज़रूरी है। समता और न्याय के बिना अपनापन और मित्रता नहीं पनप सकती। सामाजिक शांति और सौहार्द शोषणकारी और हिंसक शक्तियों में निजात पाए बिना असंभव है।

शोषण हिंसा है—वह चाहे सीधे हो या लुके-छिपे, सामाजिक हो या आर्थिक, राजनीतिक हो या सांस्कृतिक। जाति, नस्ल, वर्ग, जेडर की धुरी पर कायम समाज में स्वाभाविक रूप से शोषण और हिंसा होती है और ऐसे समाज में शांति की कल्पना बेकार है। जो लोग सच में शांति चाहते हैं उन्हें शोषणकारी ताकतों के खिलाफ़ खड़ा होना होगा, लड़ना होगा।

निहित स्वार्थ और नैतिकता में स्वाभाविक रूप से विरोध है—दोनों एक साथ नहीं रह सकते। इसी तरह सत्ता और साधन पर कुछ लोगों का आधिपत्य और लोकतंत्र एक साथ नहीं चल सकते। शांति और मानवीयता के पक्षधर लोगों को निहित स्वार्थों के खिलाफ़ खड़ा होना होगा। वस्तुतः शोषणकारी तत्वों के खिलाफ़ खड़े लोग ही शांति और प्रेम के पुजारी हो सकते हैं। बाकी लोग जो कोरी शांति की दुहाई देते हैं लेकिन ज़ोर-जुल्म के खिलाफ़ नहीं बोलते-लड़ते, वे अमीर और शोषणकारी लोगों के साथ अशांति और हिंसा के पैरोकार हैं। एक भूखे बच्चे की तरफ़ रोटी फेंक देना शांति के लिए काफ़ी नहीं है, शांति के रास्त पर चलने का मतलब है उस व्यवस्था को नेस्तोनाबूद कर देना जो करोड़ों भूखे बच्चों को जन्म देती है। शांति-सौहार्द के लिए खड़े होने का मतलब है अमीर-उमरावों की ऐय्याशियों को दरकिनार कर गरीब बच्चों की जिंदगी में रोशनी लाने की कोशिश करना। जो शोषित हों, दलित हों, अन्याय के मारे हों, चाहे वह व्यक्ति हो या समाज, उसके पक्ष में खड़े होना और उसकी वकालत करना ईसा के हर मानने वालों का फ़र्ज़ होना चाहिए।

अछूत और अलग-अलग जाति-वर्ग के ब्राह्मणवादी प्रपंच और विभिन्नताओं का सम्मान एक ही चीज़ नहीं है। भिन्न-भिन्न लोगों कि भिन्न-भिन्न जीवनशैली, वेशभूषा, रंगरूप से भला किसे विरोध हो सकता है। सब लोग कभी एक तरह से नहीं रह सकते, सब लोगों के जीवन से अलग-अलग आशा-अपेक्षाएँ होती हैं और यह एक अच्छी बात है। झमेला और झगड़ा तब शुरू होता है जब कुछ होशियार लोग अपनी सफलता और उत्कृष्टता के लिए दूसरों को कुचलकर आगे बढ़ते हैं। जिस समाज में अवसर की समानता नहीं हो, वहाँ अपनी प्रतिभा और उपलब्धियों का इश्तहारी बखान करना हाशिए पर ढकेले गए लोगों के साथ क्रूर मज़ाक होता है। क्योंकि ऐसी उपलब्धियाँ प्रतिभा से नहीं, विशेषाधिकार से हासिल करवाई जाती हैं। इस घिनौनी प्रक्रिया में बहुतेरे लोगों को बाहर रखा जाता है और इस सामाजिक अन्याय में शोषक और शोषित दोनों अमानवीय और बर्बर होने के लिए अभिशप्त होते हैं।

इन्हीं वजहों से ईश्वरीय प्रेम को ईसा ने बिलकुल नए रूप में सामने रखा और इस पर ज़ोर दिया कि ईश्वर दीन-दुखियों से असीम प्यार करता है। यह अकारण नहीं है कि ईसा गरीब और उत्पीड़ित लोगों के करीब आते हैं। जो कोई शोषित-उत्पीड़ित है, ईसा उसके पास पहुँचते हैं। उनका यह प्रेम यथास्थिति को अस्थिर और अशांत करता है, उसकी चौहद्दियों को लाँघकर शोषणकारी व्यवस्था को चुनौती देता है। उनका पूरा जीवन इस बात की तरफ़ साफ़-साफ़ इशारा कतरा है कि पीड़ित मानवता को मुक्ति के बिना शांति और सौहार्द की स्थापना असंभव है। दूसरे शब्दों में, दुनिया जब तक शोषक और शोषित, विजेता और विजित के दायरे में विभाजित है, तब तक सामाजिक समरसता असंभव है। इसीलिए ईसा सबों को साथ लेकर चलने की शिक्षा देते हैं। विशेषकर उत्पीड़ितों के साथ एकता और हर किसी का सब से एकता उनकी नैतिकता के केंद्र में है। अपने प्रखर और सक्रिय रूप में, यह हमें शोषण के खिलाफ़ बगावत करने का हौसला देता है। अपने निष्क्रिय रूप में, यह हमें पीड़ितों की पीड़ा में शरीक होने का आह्वान करता है। इन दोनों रूपों में वह हमें उपेक्षित, अपमानित और दबे-कुचले लोगों के साथ देने का इशारा करता है। यह हमें नसीहत देता है कि दूसरे से न्याय और प्यार करना स्वयं हमारी भलाई की लिए ज़रूरी शर्त है।

प्रार्थना चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक, हमें प्रेम और सच्चाई पर आधारित काम करने के लिए प्रेरित करता है। ईसा ने बिलकुल सही कहा था कि सच्चाई हमें मुक्त करेगी, लेकिन सच्चाई की तलाश और उस पर अमल एक मुश्किल और चुनौती भरा काम है। लेकिन अगर हम इस चुनौती को स्वीकार करते हैं तो हम सही मायने में क्रिसमस मना रहे हैं। मेरी क्रिसमस!

***

दलित-पीड़ितों का महानायक, सभी महानों का सर्वोच्च, महान मुनि और सच का प्रेमी, बलि राजा (ईसा मसीह) इस धरती पर आए ... सच्चे और पवित्र ज्ञान के साथ और सभी को इसमें बराबरी का हक दिया ... उन्होंने गरीबों और उत्पीड़ितों को गुलामी की ज़ंजीर से बाहर लाने का महान काम शुरू किया ... और इस धरती पर स्वर्ग लाने के लिए ज़बर्दस्त संघर्ष किया।
गुलागिरी में महात्मा फुले

Sunday, 7 November 2010

हिंदुस्तान का दिल देखो

तिल देखो ताड़ देखो
आँखें फाड़-फाड़ देखो
शेर की दहाड़ देखो
मारबल का पहाड़ देखो
चंदेरी की साड़ी देखो
बांधवगढ़ की झाड़ी देखो
उज्जैन के संत देखो
बौद्धिक महंत देखो
बुद्धा के निशान देखो
गीता और कुरान देखो
इंदौर की शान देखो
कैसे बनता पान देखो

वाह भैया

खजुराहो शिल्पकारी देखो
भीमबेटका कलाकारी देखो
कट्टर प्रेम पुजारी देखो
आँखें मीचे-मीचे देखो
आँखें फाड़-फाड़ देखो

सतपुड़ा की रानी देखो
भोपाल राजधानी देखो
राजधानी में झील देखो
बहता पानी झिलमिल देखो
धर्मों की महफ़िल देखो
हिंदुस्तान का दिल देखो

Tuesday, 28 September 2010

नगाड़ों की चोट पर ...

दैनिक  भास्कर अखबार में जयप्रकाश चौकसे का आज का स्तंभ संजय लीला भंसाली की आने वाली फ़िल्म गुज़ारिश पर था। तीन-एक साल में चालीस साल की हो जाने वाली ऐश्वर्या राय को चौकसे ने "चालीस कैरट
की ऐश्वर्या कहा है"। चौकसे को नियमित तौर पर नहीं पढ़ पाता लेकिन जब भी पढ़ता हूँ तो उनकी एक-आध बात तो लाज़मी तौर पर असर डालती है। इस लेख मे जिस बात ने खासतौर पर ध्यान खींचा वह चौकसे की यह टिप्पणी थी:
प्रायः महिला सितारों की पारी लंबी नहीं होती क्योंकि करियर के बैंक में जवानी का डिपोज़िट घटने पर मुस्काने के चैक भी बाउंस होने लगते हैं। केवल प्रतिभा के दम पर हॉलीवुड में ही नायिकाएं सम्मानपूर्वक लंबी पारियां खेलती हैं जैसे मैरिल स्ट्रीप आज भी पसंद की जाती हैं। क्या यह गौरतलब नहीं है कि प्रचलित तौर पर भौतिकवादी कहे जाने वाले पश्चिम में महिला सितारे यौवन के नहीं, प्रतिभा के दम पर टिके रहते हैं और नगाड़ों की चोट पर स्वयं को अध्यात्मवादी देश मानने वाले भारत में महिला सितारों की पारी उनके सेक्सी और खूबसूरत बने रहने तक ही चलती है? दरअसल जीवन के हर क्षेत्र में तमाम पारंपरिक परिभाषाओं के पुनः परीक्षण की आवश्यकता है।
हमारा बदला हुआ स्वरूप और दृष्टिकोण महज अय्याशी का दिखावा नहीं है वरन हमारा अपना सत्य है।
हालाँकि चौकसे ने खुद इस लेख में पुनः परीक्षण नहीं किया। शब्द सीमा और मौके की कुछ मजबूरियाँ होती हैं लेकिन बात बेशक गौरतलब है। बात दरअसल पुरुष महिला के मुद्दे से अधिक बुनियादी है। बात मानवीय अस्तित्व से जुड़ी हुई है। किसी मनुष्य का अंतर्निहित मूल्य क्या है? क्या वह उसकी जीवन की अवस्था के साथ-साथ बदल जाता है? क्या वह उसके लिंग के साथ बदल जाता है? उसके किसी वर्ग विशेष के साथ जुड़े होने से प्रभावित होता है? खास भारतीय, समाज की बात करें तो क्या वह उसकी जाति के
साथ  बदल जाता है?

Saturday, 10 July 2010

कर्ण का कर्म: अशक्त क्रोध?

प्र:...आपका शीर्षक यह नहीं बताता कि पुस्तक मुख्य रूप से महाभारत पर है ... आपने महाभारत को ही क्यों चुना?
: मैंने महाभारत को चुना क्योंकि मैं जानता था कि महाभारत धर्म से आसक्त है, और मैं हमारे में शासन की दशा और भ्रष्टाचार को लेकर बहुत ही निराश था। और मैं यह भी जानता था कि पूरे महाकाव्य के दौरान महाभारत नागरिक सद्गुणों की परिकल्पना खोज रही थी, केवल नागरिकों के सद्गुण ही नहीं बल्कि शासकों के भी ...
उपरोक्त प्रश्न समाजशास्त्री और राजनैतिक मनोविश्लेषक आशीष नंदी ने पूछा था और उत्तर देने वाले थे गुरचरण दास जब उन्होंने दास की किताब द डिफिकल्टी ऑफ़ बींग गुड: ऑन द सटल आर्ट ऑफ़ धर्म (पेंगुइन, 2009) पर अपनी टीवी परिचर्चा शुरू की। यह किताब प्राचीन महाकाव्य पर एक समकालीन चिंतन है। यह महाकाव्य, जैसा कि लेखक ने कहा, “धर्म से आसक्त है, अर्थात् सही और गलत के, अच्छाई और बुराई के, सत्य और असत्य के प्रश्नों से। जीवन में हम जो कई चुनाव करते है, व्यक्तिगत या सामूहिक तौर पर, वे इसी प्रकार के अंतरों के बारे में होते हैं। महाकाव्य के कुछ सबसे अत्याकर्षक पात्रों एक-एक अध्याय लिखते हुए, गुरचरण दास अपने पाठकों को उन पात्रों के अनुभवों के प्रति जागरूक करते हैं कि वे खुद अपने जीवनों के लिए उनसे कुछ सबक सीखें। ये केवल धार्मिक, बल्कि आध्यात्मिक, सबक ही नहीं हैं। ये सामाजिक और राजनैतिक नैतिकता के सवाल हैं। और उससे भी आगे, ये मुद्दे हैं ईर्ष्या, साहस, कर्त्व्य, निराशा इत्यादि जैसी हमारी रोज़मर्रा की मानवीय भावनाओं के।

इस प्रकार की पुस्तक यह संकेत देती है कि समाज एक विशाल सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक उथल-पुथल के बीचों बीच है। कोई भी समाज जो इस तरह के सवालों का सामना कर रही है वह एक मज़बूत धरातल की खोज करने को बाध्य हो जाता है जिस पर खड़ा हो कर वह बुद्धिमतापूर्ण फ़ैसले कर सके। एक नैतिक दिशासूचक के रूप में महाभारत की ओर ताकने वाले गुरचरण दास अकेले नहीं हैं। साल 2006 में चतुर्वेदी बद्रीनाथ ने अपनी महत्त्वाकाँक्षी पुस्तक महाभारत: एन इनक्वायरी इन द ह्यूमन कंडीशन (ओरियंट लॉन्गमैन) प्रकाशित की। और इस साल, मार्च 2010 में, विवेक देवराय ने 10 खंडों में महाभारत के अनुवाद की परियोजना की पहली किश्त प्रकाशित की।
समकालीन भारतीय बुद्धिजीवियों में महाभारत को लेकर एक नवीकृत दिलचस्पी जागी है। सार्वजनिक और निजी नैतिकता की खोज में एक विन्यास देखा जा सकता है। यह खोज बुद्धिजीवियों को बार-बार इस प्राचीन महाकाव्य कि ओर ले जाती है।
यही वह विचारधारात्मक पृष्ठभूमि है जिसके परिप्रेक्ष में प्रकाश झा की नवीनतम फ़िल्म राजनीति को देखा जा सकता है। ऐसा नहीं कि यह संयोगवश ही महाभारत पर आधारित कोई एक अकेली फ़िल्म है। यह उपरोक्त बौद्धिक खोज का ही हिस्सा है। फ़िल्म का इरादा मनोरंजन करना है, पर यह समकालीन भारतीय राजनीति को महाभारत के खाके में रख कर समझने का एक प्रयास भी है। झा को सामाजिक प्रसंग की फ़िल्में बनाने के लिए जाना जाता है। उनकी लगभग सभी फ़िल्में एक दर्पण का कार्य करती हैं जो समाज की वास्तविकता को प्रतिबिंबित करती है। उनके बारे में एक कमोबेश कम ज्ञात तथ्य यह है कि उन्होंने चुनावों की राजनीति में भी हिस्सा लिया है। उन्होने दो लोकसभा चुनाव लड़े, 2004 और 2009 में; दोनों बार वे पराजित हुए। इस तरह यह फ़िल्म, राजनीति, एक अंदर के आदमी की जानकारी का भी फल है। महाभारत बेशक एक राजनैतिक गाथा है। वह बड़ी लड़ाई सिंहासन के लिए, सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए, एक ही परिवार की दो शाखाओं के बीच लड़ी गई।
वंशवाद आधुनिक भारतीय राजनीति का एक अटूट हिस्सा है और इसीलिए महाभारत के साथ एक समानता है। लेकिन प्रजातांत्रिक आदर्श भी आधुनिक राजनीति का दिशानिर्देशन करते हैं और अंततः यह साधारण पुरुषों और साधारण महिलाओं के बारे में है। महाकाव्यों में आम जनता मात्र तमाशाई है, दर्शक है; कर्म कुलीन वर्ग करता है। बड़े-बड़े महाकाव्य देवों, राजाओं और युवराजाओं का महिमागान करते हैं; समकालीन राजनीति आम जनता, निम्न वर्ग, और हाशिए पर रहने वालों की आकाँक्षओं की गवाह है। यह एक सृजनात्मक समस्या है: उन समयों में राजाओं और देवताओं की कहानियाँ किस तरह पेश की जाएंगी जब सत्ता की चाबी आम नागरिकों के हाथ में है? उस कहानी में जो प्राचीन मिथकीय काल में रची-बसी है, उसमें आधुनिक काल के आम आदमी की तस्वीर कैसे प्रस्तुत की जाए? उस देश-काल की कथा जिसमें आम जनता को उपर उठने की अनुमति नहीं थी उसे किस प्रकार प्रासंगिक बनाया जाए?

इस फ़िल्म में, ये प्रश्न एक पात्र पर केंद्रित होते हैं सूरज कुमार, एक युवा और उभरता हुआ निम्न-जाति का नेता।
आखिरकार महाभारत केवल धर्म की ही बात नहीं करता। यह वर्णाश्रम धर्म को भी पुनः लागू करता है । ब्राह्मण (द्रोण) शूद्र या आदिवासी छात्र (कर्ण, एकलव्य) को शिक्षा नहीं देंगे, एक क्षत्रीय सुंदरी द्रौपदी शूद्र कर्ण से विवाह करने से इनकार कर देगी, वर्णाश्रम धर्म के तर्क का इस्तेमाल करते हुए कृष्ण अर्जुन को एक क्षत्रीय के रूप में लड़ने के लिए मना लेंगे।
एक रथवान के पुत्र के रूप में आज कर्ण ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग/जाति के सदस्य) कहलाए जाएंगे। परंतु फ़िल्म में सूरज (अजय देवगन) एक दलित हैं जो पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करने का दावा भी करता है। सूरज कुमार राजनीति पर वंशवाद के दबदबे को तोड़ने का प्रयास करता है। वह एक स्वाभिमानी युवक है जो लोकतंत्र की, और संख्याओं की, शक्ति को समझता है।
हरिजन बनाम दलित
हालाँकि, जब वह राजनीति और शासन में सार्थक प्रतिनिधित्व की माँग उठाना शुरू करता है तो उसे ऐसी रुकावटों का सामना करना पड़ता है जो केवल उच्च वर्णीय राजनेताओं ने ही नहीं बल्कि उसके अपने समुदाय के सदस्यों ने पैदा की हैं। उसकी अपनी जाति के बुज़ुर्ग सोचते हैं कि यथास्थिति पर सवाल उठाने उसका पागलपन है। सूरज द्वारा चुनाव लड़ने की अभिलाषा समुदाय को दो खेमों में बाँट देती है, जवानों और बुज़ुर्गों की पीढ़ी। उसे हरिजन और दलित खेमा कहना अधिक सार्थक होगा। हरिजन शब्द अछूतों द्वारा गाँधी द्वारा प्रयोग में लाया गया था। परंतु यह शब्द डिप्रेस्ड क्लास के उन

नेताओं पर लागू किया जा सकता है जिन्होंने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति में दोयम दर्जे की भूमिका निभाना स्वीकार किया। वे निचले पदों पर रहने में, और पार्टी के लिए समुदाय के वोटों के बिचौलिए बनने में ही संतुष्ट थे। पार्टी का नियंत्रण हालांकि उच्च वर्णों के हाथों में ही रहा। इसमे जीवन कुमार जैसे क्रीमी परत वाले राजनेता भी शामिल हैं जो फ़िल्म में उच्च वर्णीय नेताओं के कमज़ोर मोहरे थे। दलित शब्द उन उभरते हुए विचारकों, कलाकारों और अगुवों को चिह्नित करता है जिन्होंने अपनी राजनैतिक महत्त्वाकाँक्षाओं को वर्चस्वधारी जातियों के नेताओं के पैरों में समर्पित करने से इनकार कर दिया। सूरज और उसके पिता के बीच एक संवाद में हरिजन और दलित मानसिकता का भेद साफ़ हो जाता है। पिता, जो एक ड्राइवर है, यह कहता है कि सूरज को अपने मालिकों के खिलाफ़ आवाज़ नहीं उठानी चाहिए क्योंकि उनसे घर की रोज़ी-रोटी चलती है। इस हरिजन वक्तव्य के विरोध में दलित सूरज कहता है मालिकों को रोटी नौकर कमा कर देता है।
अभिलाषी, लेकिन अगुवा नहीं
सूरज एक अभिलाषी है। लेकिन फ़िल्म में उसे एक अगुवे या नेता के रूप में विकसित नहीं किया गया। उसे एक भी रैली को संबोधित करते हुए नहीं देखा जा सकता। उसके साथ उसकी कबड्डी टीम के सदस्यों का दल साथ रहता है, और वह आवाज़ भी उठाता है लेकिन केवल हाशिए से अपने मौहल्ले में, पार्टी की बैठक में और दर्शकों के बीच से। सूरज को कभी भी मंच नहीं मिलता। ऐसे कई उदाहरण मिलतें कि वह केवल एक हत्यारा है। फ़िल्म उसे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में गौण कर देती है, जिसे बॉलिवुड के शब्दों में कहें तो, जो सुपारी उठाने वाला अंडरवर्ल्ड का डॉन है। फ़िल्म में पिछड़ी जातियों की राजनीति को वृहद रूप में देखें तो वह केवल (उच्च जातीय नेताओं की) एक चाल-सी लगती है, चाहे बात पृथ्वी प्रताप (अर्जुन रामपाल) द्वारा नाममात्र उम्मीदवार जीवन कुमार को मैदान में उतारने की हो, या फिर ब्रिज गोपाल (नाना पाटेकर) द्वारा दलित घराने के पारिवारिक जज़्बातों की राजनीतिक मैनीपुलेशन की, जहाँ वह बाप को बेटे के खिलाफ़ खड़ा कर देता है फूट डालो और राज करो की नीति अनुसार।
फ़िल्म की शुरुआत में ब्रिज गोपाल चंद्र प्रताप और उसके बेटे को चेतावनी देते हैं कि उन्हें वीरेंद्र (मनोज बाजपेयी) की बजाय सूरज की अधिक चिंता करनी चाहिए। उस समय दर्शकों को लग सकता है कि सूरज उनके लिए एक चुनावी खतरा होगा, लेकिन हम देखते हैं कि वह केवल उनकी जान का खतरा बन कर रह जाता है।
पारिवारिक प्रतिष्ठा

हमारे राजनेताओं के लिए यह असामान्य बात नहीं के वे जनता, पार्टी या राजनीतिक नैतिकता का कोई सम्मान न करें। महाभारत के अर्जुन और अमेरिकी उपन्यास और फ़िल्म द गॉडफ़ादर के किरदार माइकल कोरलियोन पर आधारित समर प्रताप (रणबीर कपूर) का पात्र अपनी नज़दीकी परिवार के पुरुष सदस्यों के लिए लड़ रहा है: उसका मृत बाप और जेल में बंद भाई।

साहित्य का विद्यार्थी, समर राजनैतिक भंवर में कूद पड़ता है, इसलिए नहीं कि वह किसी मानवतावादी मूल्यों के तंत्र या गरीबों और दबे-कुचले लोगों के लिए सरोकार से प्रेरित है। उसका मुख्य प्रयोजन अपने परिवार के साथ हुए गलत व्यवहार का बदला लेना है। दूसरी तरफ़, सूरज अपने समुदाय कि ओर से राजनीति में हस्तक्षेप करता है। लेकिन चूँकि निर्देशक की नज़रों में उसके परिवार की कोई प्रतिष्ठा नहीं, उसे केवल एक गुंडे का रूप दे दिया जाता है। सूरज का पिता प्रताप खानदान का ड्राइवर है। जब वह परिवार के छोटे बेटे समर को हवाई अड्डे से लेने जाता है तो उसे युवा तुर्क (समर) से तोहफ़े के तौर पर एक घड़ी मिलती है। सूरज इस प्रकार के कृपाकर्म से नाराज़ होता है। वह अपने पिता से कहता है कि इस तोहफ़े का इरादा सिर्फ़ यह है कि वह समय से अपनी ड्यूटी पर पहुँचे। झा चाहते हैं कि हम यह मान लें कि सूरज का गुस्सा अतार्किक है, उसका कोई आधार नहीं। समर एक भला लड़का है जिसने अपने फ़रमाबरदार नौकर के प्रति प्यार और आदर के कारण उसे यह तोहफ़ा दिया है। फ़िल्म में एक भी ऐसी घटना नहीं है जो बहुजन पीड़ा और गुस्से के लिए एक मज़बूत मामला पेश कर सके।
क्या लाखों पुत्रों का उदय होगा?
साल 2009 के आम चुनाव के परिणाम घोषित होने के बाद, आशीष नंदी ने तहलका में लिखा था कि भारतीय राजनीति में लामबंदी की इकाई व्यक्ति नहीं जाति है और इस चुनाव को मंडलोत्तर युग मानना एक जल्दबाज़ी होगी। प्रकाश झा कहते हैं कि वह आशीष नंदी की पुस्तकों इत्यादि को बड़ी दिलचस्पी के साथ पढ़ते हैं। लेकिन इस फ़िल्म में झा पिछड़ी जातियों के नेताओं ने समकालीन राजनीति में जो
भूमिका निभाई है उसके महत्त्व को कम करते लगते हैं, और केवल उच्च जातियों के वंशवादी तत्व को ही चिन्हांकित करते हैं। बेशक जाति की सच्चाई इस फ़िल्म में मौजूद है। सूरज बड़े अभिमान के साथ कहता है कि वह एक दलित है, एक ऐसा शब्द जो बॉलिवुड में शायद ही कभी इस्तेमाल होता हो। लेकिन राजनीति केवल एक पारिवारिक झगड़ा बन कर रह जाती है, जहाँ पिछड़ी जाति के नेता द्वारा किसी भी सकारात्मक कर्म से इनकार कर दिया जाता है।
ठीक इसी पल, देश के सामने सबसे बड़ा सामाजिक-राजनैतिक प्रश्न यही है कि क्या जनगणना में लाखों कर्णों (ओबीसी) की गिनती की जाएगी। यह फ़िल्म समकालीन लोकतांत्रिक माहौल में कर्णों के उदित होने को दिखाने में असफल होती है। ऐसा इसलिए भी हो क्योंकि यह महाकाव्य फ़िल्मकार पर सीमा लागू कर देता है। इस महावृत्तांत में कर्ण हमेशा हाशिए पर रहने वाला किरदार ही रहेगा, सत्ता के जायज़ दावों से हमेशा वंचित। एक सद्गुण जिसकी अनुमति उन्हें मिलती है वह है स्वामीभक्ति जो अंत में आत्मघाती स्वामीभक्ति है। क्या यही कर्ण का नितांत कर्म है एक अशक्त क्रोध की आग में जलना और जल कर खत्म हो जाना? क्या सत्ता हमेशा उनकी पकड़ से बाहर रहेगी? वास्तविक जीवन में अगर किसी और ने नहीं तो मायावती ने इस मिथक को तोड़ दिया है। और अगर राजनीति कुछ साबित करती है तो यही कि बहुजनों की आकांक्षाओं के लिए ज़रूरी नहीं कि महाभारत ही एक पटकथा है।
------------------------------------------------------------------------
कर्ण पर कुछ चुनिंदा साहित्यिक कृतियाँ
कर्ण एवं कुंती, रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा एक लघु नाटक
प्रथम पार्थ, बुद्धदेव बोस द्वारा एक नाटक
मृत्युंजय, शिवाजी सांवद द्वारा एक उपन्यास
राधेय, रणजीत देसाई द्वारा एक उपन्यास
रश्मिरथी, रामधारी सिंह दिनकर द्वारा एक लंबी कविता
महाभारत पर अन्य लोकप्रिय कृतियाँ

द ग्रेट इंडियन नॉवेल, शशि तरूर
युगांत: दि एंड आफ़ एन इपॉक, इरावती कर्वे
द डिफिकल्टी ऑफ़ बींग गुड: ऑन द सटल आर्ट ऑफ़ धर्म, गुरचरण दास
द महाभारत: एन इनक्वायरी इन द ह्यूमन कंडीशन, चतुर्वेदी बद्रीनाथ



-----------------------------------------------------------------------


-------------------------------------------------------------------------

कर्ण एक बाहरी व्यक्ति के सर्वोत्तम उदाहरण हैं। मूल महाभारत में, सामाजिक रूप से वे एक शूद्र हैं, क्षत्रियों की सभा में अकेले। राजनीति फ़िल्म में, वह ठाकुरों के बीच अकेले दलित नेता हैं। अपने व्यंग्यात्मक उपन्यास, द ग्रेट इंडियन नॉवेल में शशि तरूर, जाति के पक्ष को समाप्त कर देते हैं, हालाँकि वे एक अन्य बाहरी व्यक्ति को कर्ण का जामा पहना देते हैं मोहम्मद अली जिन्नाह, जो उपन्यास में मोहम्मद अली करणा, कहलाता है! इस बात पर आश्चर्य हो सकता है कि तरूर ने बी. आर. अंबेडकर को अपने वृत्तांत से बाहर क्यों छोड़ दिया। क्या यह भी वही मामला हो सकता है जिसमें एक निम्न जातीय व्यक्ति का महान महाकाव्य में प्रवेश निषेध कर दिया जाता है?
------------------------------------------------------------------------------

(फॉरवर्ड प्रैस के जुलाई अंक में इसी शीर्षक से प्रकाशित)

Tuesday, 29 September 2009

कमीने फ़िल्म का शीर्षक गीत सुनने पर

यू-ट्यूब (Youtube) पर कमीने फ़िल्म का शीर्षक गीत "कमीने कमीने" के प्रत्युत्तर में सबसे ताज़ा टिप्पणी थी—This song defines my entire life (यह गीत मेरे सम्पूर्ण जीवन को परिभाषित करता है)। इस एक टिप्पणी मे कितने ही लोगों की अनकही टिप्पणियां छिपी हो सकती हैं। आजकल ऐसे गीत कम ही सुनने को मिलते हैं जिनमें पात्र अपने आप को संबोधित कर रहा हो। फ़िल्मी गीतों में इमानदारी लगभग नदारद है क्योंकि अपने आप से बात करने की कला हम खोते जा रहे हैं। भारतीय दर्शन (Indian philosophy) सिखाता है कि हम अपनी सच्चाई को जानें। हम वास्तव में हैं क्या। यूनानी दर्शन भी यही सीख देता था—Know Thyself. हमाने प्राचीन दर्शनों में यह माना जाता रहा है कि हमारा देवत्व, हमारे मनुष्यत्व की सर्वोत्तम तस्वीर हमारे अंदर ही छिपी है। लेकिन हमारा अनुभव अड़ियल है। वह कहता है हम अपने भीतर देखें तो कमीनगी पाते हैं। फ़िल्म मैंने अभी तक नहीं देखी तो कह नहीं सकता की यह गीत किस मौके पर आता है और इसके बाद यह किरदार किस तरह का रास्ता अख़्तियार करता है। लेकिन जब हम इस तरह के पलों में अपने आप को देखते हैं तो बहुत आसान होता है अपनी कमीनगी को अपनी ज़रूरत, या मजबूरी, यहां तक की उसे अपनी प्रतिभा मान कर उसी रास्ते पर चलते जाना। हमारी ज़िंदगी की परिभाषा का निर्माण दरअसल इसी पल से शुरू होता है। ज़िंदगी की परिभाषा कैसी होगी? क्या मैं उसे ख़ुद लिख सकता हूँ? बदल सकता हूँ?

ख़ैर, गीत के बोल यहाँ पढ़ें।