कुरिंथुस या कोरिंथ में कलीसिया की स्थापना के तीन-चार साल बाद पौलुस ने इस कलीसिया को भी पत्र लिखा। इनके सुनने में आया की उस कलीसिया में जिसकी नींव का पत्थर स्वयं प्रभु यीशु है वहाँ एक ज़बरदस्त भक्ति आंदोलन चल रहा है।
पौलुस ने सुना की वहाँ कि मंडली में गुरुवाद का भारी प्रचलन हो चला है। कुछ लोगों ने पौलुस को अपना गुरु कहना शुरू कर दिया, कुछ लोगों ने पौलुस के मित्र और सहयोगी अपुल्लोस को गुरु मान लिया है। कुछ दूसरे लोगों ने कहना शुरु किया कि यीशु मसीह के निकट रहने वाले उनके शिष्य कैफ़ा अर्थात पतरस को गुरु की गद्दी मिलनी चाहिए। कुछ लोगो ऐसे भी थे जो यीशु को गुरु कह रहे थे।
भक्ति अच्छी चीज़ है। यदि उद्धार पाना है तो कर्म-काण्डों, दान-चढ़ावे, तीर्थयात्राओं, पोथियाँ बाँचने से ऊँचा दर्जा है भक्ति का।
लेकिन क्या हर प्रकार की भक्ति अच्छी चीज़ है?
पौलुस का एक सीधा-सा सवाल था। क्या पौलुस ने तुम्हारे लिए जान दी? क्या क्रूस पर कैफ़ा चढ़े थे?
बात साफ़ है। जीवन में कई ऐसे लोग आएँगे जो आपको प्रभावित करेंगे। अच्छी बातें बताएँगे। जीवन को दिशा देंगे। दुःख-सुख में साथ देंगे। सहारा देंगे। लेकिन क्या इन्हीं बातों के कारण आप उन्हें अपना गुरु मान लेंगे? अपना अनंतकाल का जीवन उनके हाथ दे देंगे?
पौलुस कलीसिया को समझाना चाहते हैं कि उद्धार केवल यीशु मसीह के द्वारा ही संभव है, क्योंकि यीशु स्वयं परमेश्वर द्वारा बनाया गया मार्ग है। कोई भी मनुष्य चाहे वह कितना भी सिद्ध या "पहुँचा हुआ" क्यों न हो, परमेश्वर के पुत्र का स्थान नहीं ले सकता। कोई साधु, महात्मा, संत, उद्धार नहीं दे सकता।
उद्धार वही दे सकता है जिसने प्राण दिए। और वही गुरु बनने के, और आपकी भक्ति के योग्य है।
यदि भक्ति का केंद्र प्रभु यीशु नहीं है तो भक्ति एक आत्मिक छलावा बन सकती है।