हिंदी के महान उपन्यासकार प्रेमचंद (1880-1936) के सबसे चर्चित उपन्यास “गोदान” (1936) के मुख्य पात्र होरी काफ़ी लोकप्रिय हैं। लेकिन मेरी राय में उपन्यास की असली नायक उनकी पत्नी हैं, जिनका नाम है धनिया। होरी कुछ आदर्शवादी हैं, परंपराओं और मान्यताओं के लिए दैनिक जीवन में दुःख उठा सकते हैं। घर में बीवी-बच्चों से अधिक अपने कृतघ्न भाइयों से मोह रखते हैं। लेकिन धनिया के पाँव यथार्थ में धंसे हुए हैं। वह व्यवहारिक हैं। अपने पति, अपने बच्चों, अपने घर को बचाए रखने के लिए किसी शेरनी से कम नहीं।
अमूमन औरतें जीवन की वास्तविकता से अधिक जुड़ी होती हैं। ज़िंदगी की ज़रूरतों को नज़दीकी से समझती हैं। बच्चे की भूख, बुज़ुर्ग की बीमारी, पति की परेशानी को संजीदगी से लेती है। सब से पहले महसूस करती है। एक समझदार पत्नी पति को भी ख्याली दुनिया से खींच कर ज़मीन पर ले लाती है।
हाल ही में, बिहार के बेगूसराय में एक परिवार चर्चा में आया। एक व्यक्ति अपनी माँ की मृत्यु के बाद उन्हें दफ़नाने के लिए जा रहा था। वह व्यक्ति, जो पचास के आस-पास था, अनुसूचित जाति से संबंधित था लेकिन अब कुछ सालों से मसीही बन चुका था। मसीही धर्म के अनुसार ही अपनी माँ का अंतिम संस्कार करना चाहता था लेकिन चूँकि माँ ने मरने से पहले मसीही धर्म कबूल नहीं किया था, सो बजरंग दल के लोगों ने और एक माननीय सांसद ने उनसे नम्र निवेदन किया कि माँ का संस्कार हिंदू रीति से करो। इसके लिए उन्हें साढ़े-चार हज़ार रुपये भी दिए।
इस घटना का फ़ॉलो-अप करने के लिए एक न्यूज़ चैनल ने अपनी एक होनहार पत्रकार को भेजा। धर्म परिवर्तन का एंगल टीआरपी के लिए बहुत ही अच्छा साबित हो सकता था। पत्रकार ने कुरेद-कुरेद कर सवाल पूछे। जवाब मुख्यतः मनोज पासवान ही ने दिए। धर्म अपनी मरज़ी से बदला है। किसी ने कोई पैसा नहीं दिया, वगैहरा, वगैहरा। फिर पत्रकार महोदया को मुनासिब लगा कि पत्नी से भी बात की जाए। शायद उन्होंने सोचा हो कि पुरुष थोड़ा टेढ़ा है, महिला सीधी लग रही हैं, कुछ काम का बयान देंगी, या ऐसी गड़बड़ कर देंगी कि जो पति छिपा रहा है, वह सामने आ जाएगा। लेकिन उनके तेवर और भी कढ़े थे।
मिसेज़ पासवान ने वही दोहराया जो उनके पति पहले कह चुके थे। हमें कोई लालच नहीं दिया गया। हमने अपनी मरज़ी से धरम कबूल किया है। लेकिन कहते-कहते उनकी आवाज़ कुछ तीखी हुई। लहज़े में तल्खी दिखी। और इसमें छिपी उनकी वेदना भी नज़र आई। जब हम पर तकलीफ़ आई तो कोई मदद को नहीं आया। हमारे घर में हमारी बेटी गुज़र गई, किसी ने साथ नहीं दिया। लाश हमारे घर पर पड़ी थी, हमारा दुःख किसी ने साँझा नहीं किया।
उनका इशारा हमारी असंवेदनशील सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था की ओर था, जिसमें अगर चुपचाप पड़े रहो, घुट-घुट कर मरते रहो तो सब ठीक है। लेकिन अगर हम उस व्यवस्था से अपने को आज़ाद करने की कोशिश करते हैं तो घर के लोग, धर्म के ठेकेदार, राजनैतिक नेता, टीवी चैनल वाले सब हमसे प्रश्न पूछने आ जाते हैं।
हमारे पास केवल एक चुनने का ही अधिकार है। हमारे पास अपनी मरज़ी के सिवा और है ही क्या। जब हम इस मरज़ी का इस्तेमाल करते हैं तो बवाल खड़ा हो जाता है। तरह-तरह के आरोप हम पर लगते हैं। क्या यह न्यायसंगत है? क्या इसे सही ठहराया जा सकता है?
गीता पासवान यह पूछ रही हैं। और उन्हें गुस्सा आ रहा है।
No comments:
Post a Comment