Tuesday, 6 November 2007

अंग्रेज़ी, उर्दू, बचपन, गीत

आज सुबह एक सहकर्मी ने एक दिलचस्प खबर कि ओर ध्यान दिलाया। अंग्रेज़ी के एक रिटायर्ड प्रोफ़ैसर ने अंग्रेज़ी रोमांटिक कवि विलियम वर्डस्वर्थ की नज़्मों का उर्दू अनुवाद किया है। एक नमूना उस खबर में भी छपा था। तर्जुमा काफ़ी अच्छा लगा। यह बात में बहुत पहले से महसूस करता रहा हूँ कि अंग्रेज़ी का तर्जुमा उर्दू में काफ़ी स्वभाविक लगता है। बचपन में कई क्रिसमस कैरल्स हमने उर्दू में ही गाए हैं। कानवेंट में नहीं पढ़े इसलिए अंग्रेज़ी कैरल्स का बोध बहुत बाद में हुआ। संडे स्कूल में हम उर्दू के कैरल्स ही गाया करते थे।

न झूला न खटोला अपना सर रखने को
प्यारे यीशु के लिए जगह चरनी में थी
आसमान में सब सितारे देखते जाते उसको
छोटा यीशु ख़ुदावंद घास पर सोता है जो

जब बैलों की आवाज़ से बच्चा जाग उठता था
प्यारा यीशु ख़ुदावंद कभी रोता न था
ऐ यीशु सारे दिल से करता प्यार मैं तुझको
निगाह कर तू आसमान से सुबह तक हाफ़िज़ हो

ये बहुत बाद में पता चला कि यह तो Away in the manger का उर्दू तर्जुमा है
Away in a manger, no crib for his bed,
the little Lord Jesus laid down his sweet head.
The stars in the bright sky looked down where he lay,
the little Lord Jesus asleep on the hay.

The cattle are lowing, the baby awakes,
but little Lord Jesus no crying he makes.
I love thee, Lord Jesus! Look down from the sky,
and stay by my side until morning is nigh.

एक और नमूना

ऐ सब इमानदारों खुश औ' ख़ुर्रम होके
अब आओ चलें हम ता-बैतलहम
देखें नौज़ादा मालिक कुल जहान का
हम उसे सिजदा करें हम उसे सिजदा करें
हम उसे सिजदा करें रब्ब महमूद

ये तर्जुमा है O come all ye faithful का

इनके अलावा और भी हिंदी, उर्दू, पंजाबी के मौलिक भजन, गीत वगैरह गाते थे पर पाश्चात्य धुनों पर आधारित होने से यह गीत उस समय भी कुछ अलग से लगते थे। शायद अंग्रेज़ी hymns होने के कारण आम गीतों से लम्बे होते थे। जब कलीसिया (church)के बच्चे बड़े दिन पर क्रिसमस ड्रामा करते थे तो आखरी दृश्य में भी एक इसी तरह का लंबा गीत गाया जाता था। वह इसलिए कि तीन मजूसी (three magi) जब अपने अपने तोहफे लेकर बालक यीशु के पास जाते हैं तो सबको अपने-अपने हिस्से की लाइमलाईट में पूरा स्वाद लेने का मौका मिलता था। गीत के हर एक अंतरे पर एक मजूसी अपना तोहफा लेकर दर्शकों के बीच में से चलकर मरियम, यूसुफ़, यीशु, गडरियों, फ़रिश्तों के बीच अपनी जगह ले लेता था। यह रोल अक्सर बड़े बच्चों को मिलता था इसलिए इस रोल को काफ़ी अहमियत दी जाती थी। गडरिये छोटे बच्चे होते थे जिनमें से ज़्यादातर का सपना होता था कि वे भी अगले साल मजूसी का रोल करेंगे। खैर, गीत पेश किया जाए

हम तीन बादशाह मशरिक़ के हैं, नज़्रें भी सब वहीं की है
सफ़र दूर का पीछा नूर का करके हम आए हैं

ऐ रात के तारे अजूबा, शाही तारे ख़ुशनुमा
आगे बढ़के, राह दिखाके, कामिल नूर तक पहुंचा

सोना लाया मैं के बादशाह, बैतलहम है जिसकी बारगाह
तू ताजदार हो, और आशकार हो, अबदी शहनशाह

मैं लोबान साथ ले आया हूँ, ताकी तुझको नज़्र मैं दूँ
दिल-ओ-जान से और ईमान से, तुझको ख़ुदा मानूँ

मुर्र मैं लाया, मौत का निशान, क्योंकि देगा तू अपनी जान
दुःख उठा के, खून बहा के, होवेगा तू कुर्बान

यह तर्जुमा है We three kings of orient are का

Monday, 1 October 2007

उम्र के खेल

अर्जेंटीना में फ़्रांसिस फ़ोर्ड कोपोला का कम्प्यूटर चोरी हो गया। कोपोला पिछले कुछ महीनों से ब्यूनस आर्यस में रह रहे थे और कम्प्यूटर में उनकी अगली फ़िल्म टेट्रो की स्क्रिप्ट भी थी जिसके अब खो जाने से वे काफ़ी दुखी हैं। ख़ैर, बीबीसी पर प्रकाशित इस ख़बर में एक बात जो मुझे खासी दिलचस्प लगी वो थी कि कोपोला स्पैनिश भाषा सीख रहे हैं। तकरीबन 68 साल की उम्र में भी इस शख़्स की धुन से हैरान हूँ, बहुत प्रभावित हूँ। अधिक हैरानी इस बात की है एक फ़िल्म निर्देशक के तौर पर एक उंचा मुक़ाम हासिल कर लेने के बाद भी वे कुछ नया सीख रहे हैं। वे कोई रिटार्यड कामगार नहीं हैं जिसे समय बिताने के लिए किसी शौक की दरकार है। कोपोला तुम्हारी फ़िल्मों और शोहरत के अलावा तुम्हारी इस धुन को सलाम। मेरे उर्दू सीखने की इच्छा को एक नया बल मिला है। एक दिन मैं भी उर्दू पढ़ना लिखना सीखूंगा। शायद बांग्ला भी ... शायद स्पैनिश भी।

बीबीसी पर उम्र के लिहाज़ से अर्जेंटीनी से संबंधित सीधी कहानी हालांकि कोई और ही थी। सांता फ़े में एक 24 वर्षीय युवक ने एक 82 वर्ष की वृद्धा से शादी की। इस वक़्त मैं मिलान कुन्देरा के उपन्यास आइडेंटिटी के उस हिस्से में पहुंच गया हूँ जहां शौहर और बीवी में तनाव गहरा गया है। बीवी शौहर से उम्र में बड़ी है जो उसकी असुरक्षा का कारण है। शौहर बीवी से कम कमाता है जो उसकी हीनभावना की वजह है। ये दोनों बातें हालांकि नॉवेल के शुरू में ज़ाहिर नहीं की गई थीं। अब जबकि किसी तीसरे ही मुद्दे पर उनमें तकरार है (यह तीसरा मुद्दा दरअसल पहला मुद्दा है। इसी में वृत्तांत का मूल है) तो ये दो बातें हर नाराज़गी का बुनियादी वजह बन कर उनके सामने आ खड़ी हुई हैं। नॉवेल अभी पूरा नहीं पड़ा। देखते हैं अंत क्या होता है।

Tuesday, 14 August 2007

आज़ादी की पूर्वसंध्या पर

देश की आज़ादी की साठवीं वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर हिंदी में एक नया ब्लॉग शुरु कर रहा हूँ। यह एक संयोग है हालांकि इसे सिर्फ अंग्रेज़ी में ही लिखने से आज़ादी पाने का एक प्रतीक भी माना जा सकता है। आज के दिन और आज़ादी के बीच के संबंध को सार्थक बनाने की एक दिलचस्प घटना आज हुई। दफ़्तर में बैठे बैठे डॉ सत्यपाल सहगल का एसएमएस आया कि तस्लीमा नसरीन पर हुए हमले के विरोध में चंडीगढ़ का एक संगठन सत्रह सेक्टर—जो कि शहर का कमर्शियल सेंटर है—में कुछ लोगों को इकट्ठा कर रहा है। अख़बारों में छपी तस्वीर जिसमें तस्लीमा गुस्साई, डरी हुई अपनी साड़ी का पल्लू संभाल रही हैं और कुछ आयोजनकर्ता मानवीय ढाल बन उन्हें बर्बर विधायकों से बचा रहे हैं मेरे मन में अभी भी ताज़ा थी। करीब साढ़े बारह बजे मैं भी प्लाज़ा पर पहुंच गया। हम कुछ ही लोग थे। कुछ के हाथों में प्लैकार्ड थे और कुछ ने बॅनर पकड़ रखा था। सहगल जी ने दूर ही से देख हाथ हिलाया। बहुत दिनों बाद उनसे मुलाकात हुई। ख़ैर, विरोध प्रदर्शन में हम लोगों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी, तस्लीमा नसरीन, कलाकारों, लेखकों, चित्रकारों की स्वतंत्रता को लेकर ज़िंदाबाद तथा कट्टरवाद, आतंकवाद, फिरकापरस्ती तथा हर प्रकार की संकीर्णता के ख़िलाफ़ मुर्दाबाद के नारे लगाए।


इसी बीच याद आया कि पिछली बार करीब आठ-साढ़े आठ साल पहले भी मैं इस प्रकार के एक विरोध प्रदर्शन का हिस्सा था। ग्राहम स्टेन्स और उसके दो बेटों के क़त्ल के बाद चंडीगढ़ के एक मानवाधिकार संगठन ने भी इसी प्रकार का और इसी जगह एक विरोध प्रदर्शन किया था। उस दिन सब लोग मानव-श्रृंखला बना, हाथों में प्लैकार्ड लिए खड़े थे। बाज़ार में घूमते-फिरते लोग इस तरफ़ देखते, कुछ नज़दीक आ कर पोस्टर, प्लैकार्ड पड़ते। दो शख़्स इसी तरह पास आए और कोने में खड़े एक व्यक्ति के हाथ में पकड़े प्लैकार्ड पर चिपके कागज़ को फाड़ने लगे। हम सब उन्हें चुपचाप खड़े देख रहे थे और वे भी बिना कुछ कहे बेपरवाही में—जैसे ललकारते हुए—पोस्टर फाड़ रहे थे। कोई भी इस यथास्थिति को भंग नहीं करना चाहता था। लगता था कि दो पक्ष इसी मुद्रा के द्वारा कोई वक्तव्य दे रहे हों। अपनी अपनी स्थिति बयान होते देख रहे हों।


आज ऐसा कुछ नहीं हुआ। विरोध प्रदर्शन करने वालों के एक साथ होते ही अलग-अलग अख़बारों के फोटोग्राफ़र तस्वीरें उतारने लगे। थोड़ी देर के लिए सब कुछ बड़े ही स्टेज-मैनेजड तरीके से होता लग रहा था। फोटो उतारने वाले गले में लटके कैमरों को आंखों के सामने ला कर फोकस करते फिर छाती और बढ़ते जाते पेट के सामने टिका कर हमें ठीक से, हिसाब से, आंदोलनकारियों की तरह खड़े होने के निर्देश देते। एक जनाब कहते हैं, "मैडम को आगे लाएं" दूसरे की मांग है , "वकील साहब थोड़ी मुट्ठी बना कर हवा में लहराएं" पहले वाले फिर मुझसे अंग्रेज़ी में कहते हैं, "वाय आर यू हाइडिंग युअर फेस?"

खैर इन महारथियों के फारिग होने के बाद सब प्रदर्शनकारी अपनी लय में आए और शुरु हुआ नारों का दौर। हिंदी और पंजाबी में लगाए नारे सब को आपस में जोड़ रहे थे। एक युवा विद्यार्थी पीठ पर एक बैग लटकाए और हाथों में शीतलपेय का डिस्पोज़ेबल गिलास पकड़े पास आया और बड़े गौर से प्लैकार्ड्स पे जो लिखा था पड़ने लगा। मेरा ध्यान कुछ देर बाद उससे हटा क्योंकि हमारे बिल्कुल पीछे बूटपॉलिश करने वाले दो लड़के झगड़ रहे थे और एक दूसरे से गुत्थम-गुत्था होते भद्दी गालियां बक रहे थे। अभिव्यक्ति की उनकी आज़ादी का मेरे साथ खड़े एक प्रदर्शनकारी ने हनन किया। जब मैंने वापिस मुड़ कर देखा तो वह विद्यार्थी जा चुका था। "तस्लीमा नसरीन हम तुम्हारे साथ हैं, आगे बढ़ो आगे बढ़ो" का नारा लगाते हमने चलना शुरु किया। प्लाज़ा का एक चक्कर लगाते हुए हम किताबों की प्रमुख दुकानों के सामने से भी गुज़रे। दुकानवालों ने या दुकान में किताबें खरीदने वालों ने हम पर ध्यान दिया हो यह मालूम नहीं। खैर हम पूरे जोश-ओ खरोश के साथ नारे लगाते रहे। उस वक्त यह यकीन पुख़्ता होता जा रहा था कि है कि मूल्यों की राह पर चलने वाले लोग थोड़े ही होते हैं। हम लोग कम थे। जितने होने चाहिए थे उससे कम। पर कम होने का ख़्याल सार्थक होने की अनुभूति से कहीं छोटा था। तंगदिली के ज़माने में आज़ादी की चाह करना महान अनुभव था। आज़ादी की साठवीं वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर संयोगवश मिले इस अवसर ने आज़ादी के नए मायने बताए।