Saturday, 30 November 2024

दूध का किस्सा: राष्ट्रीय दुग्ध दिवस 2024

सर्दियों के दिन थे। डॉ. सैम हिगिनबॉटम ने देखा कि संस्थान में पढ़ने वाले लड़कों में से कुछ ही के पास गर्म कपड़े थे। दस में से एक छात्र के पाँव में ही जूते होते थे। और ये छात्र सुबह-सुबह की सर्दी सहते हुए पत्थर के ठंडे फ़र्श पर अपनी क्लास लगाने के लिए बैठा करते थे। ठंड में सिकुड़ते हुए इन छात्रों के दाँतों के कटकटाने की आवाज़ शायद हिगिनबॉटम साहब ने भी सुनी होगी। उन्हें एहसास हुआ कि ऐसी हालत में लड़कों का पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित कर पाना मुश्किल होगा। डॉ. हिगिनबॉटम ने समाधान ढूँढने की कोशिश की। लड़कों को प्रोत्साहित किया कि क्लास में आने से पहले सब छात्र दौड़ कर खेल के मैदान का चक्कर लगाएँ। ज़ाहिर है इससे शरीर में खून का संचार बढ़ता था और शरीर में गर्मी आती थी। फिर सब छात्रों के साथ छोटी प्रार्थना सभा होती थी, जैसी आज भी हमारे विश्वविद्यलय में मॉर्निंग डिवोशन होती है। उसके बाद, छात्रों को गर्मागर्म और मीठा स्किम्ड मिल्क यानि कि मलाई-रहित दूध पिलाया जाता था, जो काफ़ी पौष्टिक भी होता था। और वाकई इसके बाद छात्रों का ध्यान पढ़ाई में लगता था।

(चित्र: विकिपीडिया)
लेकिन ज़ाहिर है किसी भी अच्छे काम की आलोचना भी होती है। छात्रों के माता-पिता ने बड़े ही नाराज़गी भरे पत्र डॉ. सैम हिगिनबॉटम को लिखे। उन्हें इस बात पर ऐतराज़ था कि पादरी साहब बच्चों को मलाई-रहित दूध दे रहे थे। हिगिनबॉटम साहेब ने उन्हें समझाया कि विद्यालय का मलाई-रहित दूध उनके घरों में मिलने वाले मिलावटी दूध से कहीं बेहतर था। इसके अलावा ज़रूरी बात जो डॉ. हिगिनबॉटम ने समझाई वो ये थी कि मलाई में चिकनाई होती है और वह ऊर्जा देती है, लेकिन मलाई रहित दूध में तमाम प्रोटीन और दूसरे पदार्थ रहते हैं जो मांसपेशियों यानी मसल्ज़ और हड्डियों के विकास के लिए अनिवार्य हैं। खैर, जब लड़कों के मां-बाप ने देखा कि संस्थान में दिया जाने वाला दूध पीकर उनके बच्चों का उचित शारीरिक विकास हो रहा है, वज़न भी बढ़ रहा है, और चेहरे पर थकान नहीं बल्कि दमक नज़र आने लगी है तो उनकी आलोचना खुद-ब-खुद बंद हो गई।
आज इस राष्ट्रीय दुग्ध दिवस यानि नेशनल मिल्क डे पर आप सबको बहुत बहुत बधाई।

(मूलतः फ़ेसबुक पोस्ट)

Thursday, 20 February 2020

गीता पासवान को गुस्सा क्यों आता है?

हिंदी के महान उपन्यासकार प्रेमचंद (1880-1936) के सबसे चर्चित उपन्यास “गोदान” (1936) के मुख्य पात्र होरी काफ़ी लोकप्रिय हैं। लेकिन मेरी राय में उपन्यास की असली नायक उनकी पत्नी हैं, जिनका नाम है धनिया। होरी कुछ आदर्शवादी हैं, परंपराओं और मान्यताओं के लिए दैनिक जीवन में दुःख उठा सकते हैं। घर में बीवी-बच्चों से अधिक अपने कृतघ्न भाइयों से मोह रखते हैं। लेकिन धनिया के पाँव यथार्थ में धंसे हुए हैं। वह व्यवहारिक हैं। अपने पति, अपने बच्चों, अपने घर को बचाए रखने के लिए किसी शेरनी से कम नहीं।
अमूमन औरतें जीवन की वास्तविकता से अधिक जुड़ी होती हैं। ज़िंदगी की ज़रूरतों को नज़दीकी से समझती हैं। बच्चे की भूख, बुज़ुर्ग की बीमारी, पति की परेशानी को संजीदगी से लेती है। सब से पहले महसूस करती है। एक समझदार पत्नी पति को भी ख्याली दुनिया से खींच कर ज़मीन पर ले लाती है।
हाल ही में, बिहार के बेगूसराय में एक परिवार चर्चा में आया। एक व्यक्ति अपनी माँ की मृत्यु के बाद उन्हें दफ़नाने के लिए जा रहा था। वह व्यक्ति, जो पचास के आस-पास था, अनुसूचित जाति से संबंधित था लेकिन अब कुछ सालों से मसीही बन चुका था। मसीही धर्म के अनुसार ही अपनी माँ का अंतिम संस्कार करना चाहता था लेकिन चूँकि माँ ने मरने से पहले मसीही धर्म कबूल नहीं किया था, सो बजरंग दल के लोगों ने और एक माननीय सांसद ने उनसे नम्र निवेदन किया कि माँ का संस्कार हिंदू रीति से करो। इसके लिए उन्हें साढ़े-चार हज़ार रुपये भी दिए।
इस घटना का फ़ॉलो-अप करने के लिए एक न्यूज़ चैनल ने अपनी एक होनहार पत्रकार को भेजा। धर्म परिवर्तन का एंगल टीआरपी के लिए बहुत ही अच्छा साबित हो सकता था। पत्रकार ने कुरेद-कुरेद कर सवाल पूछे। जवाब मुख्यतः मनोज पासवान ही ने दिए। धर्म अपनी मरज़ी से बदला है। किसी ने कोई पैसा नहीं दिया, वगैहरा, वगैहरा। फिर पत्रकार महोदया को मुनासिब लगा कि पत्नी से भी बात की जाए। शायद उन्होंने सोचा हो कि पुरुष थोड़ा टेढ़ा है, महिला सीधी लग रही हैं, कुछ काम का बयान देंगी, या ऐसी गड़बड़ कर देंगी कि जो पति छिपा रहा है, वह सामने आ जाएगा। लेकिन उनके तेवर और भी कढ़े थे।
मिसेज़ पासवान ने वही दोहराया जो उनके पति पहले कह चुके थे। हमें कोई लालच नहीं दिया गया। हमने अपनी मरज़ी से धरम कबूल किया है। लेकिन कहते-कहते उनकी आवाज़ कुछ तीखी हुई। लहज़े में तल्खी दिखी। और इसमें छिपी उनकी वेदना भी नज़र आई। जब हम पर तकलीफ़ आई तो कोई मदद को नहीं आया। हमारे घर में हमारी बेटी गुज़र गई, किसी ने साथ नहीं दिया। लाश हमारे घर पर पड़ी थी, हमारा दुःख किसी ने साँझा नहीं किया।
उनका इशारा हमारी असंवेदनशील सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था की ओर था, जिसमें अगर चुपचाप पड़े रहो, घुट-घुट कर मरते रहो तो सब ठीक है। लेकिन अगर हम उस व्यवस्था से अपने को आज़ाद करने की कोशिश करते हैं तो घर के लोग, धर्म के ठेकेदार, राजनैतिक नेता, टीवी चैनल वाले सब हमसे प्रश्न पूछने आ जाते हैं।
हमारे पास केवल एक चुनने का ही अधिकार है। हमारे पास अपनी मरज़ी के सिवा और है ही क्या। जब हम इस मरज़ी का इस्तेमाल करते हैं तो बवाल खड़ा हो जाता है। तरह-तरह के आरोप हम पर लगते हैं। क्या यह न्यायसंगत है? क्या इसे सही ठहराया जा सकता है?
गीता पासवान यह पूछ रही हैं। और उन्हें गुस्सा आ रहा है।

Thursday, 6 July 2017

गुरु की भक्ति बनाम प्रभु की भक्ति

यदि भक्ति का केंद्र गड़बड़ है तो भक्ति एक आत्मिक छलावा बन सकती है।

महान मसीही प्रचारक संत पौलुस ने अपनी दूसरी मिशनरी यात्रा के दौरान यूनान देश के कुरिंथुस शहर में मसीही कलीसिया की स्थापना की। यह लगभग 50 या 51 इस्वीं की बात है। छोटी-छोटी कलीसियाओं (यानि विश्वासियों की मंडली) की स्थापना के बाद पौलुस उनसे संपर्क में रहते थे, उनके साथी-सहयोगी इन कलीसियाओं में आते-जाते रहते थे और पौलुस ख़ुद भी चिट्ठी-पत्री के द्वारा उनसे बातचीत करते रहते थे। यह चिट्ठियाँ नए उभरते मसीही समुदाय का आधार बनीं। और आने वाले समय में मसीही धर्मशास्त्र अर्थात् बाइबल का अभिन्न और महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गईं।

कुरिंथुस या कोरिंथ में कलीसिया की स्थापना के तीन-चार साल बाद पौलुस ने इस कलीसिया को भी पत्र लिखा। इनके सुनने में आया की उस कलीसिया में जिसकी नींव का पत्थर स्वयं प्रभु यीशु है वहाँ एक ज़बरदस्त भक्ति आंदोलन चल रहा है।

पौलुस ने सुना की वहाँ कि मंडली में गुरुवाद का भारी प्रचलन हो चला है। कुछ लोगों ने पौलुस को अपना गुरु कहना शुरू कर दिया, कुछ लोगों ने पौलुस के मित्र और सहयोगी अपुल्लोस को गुरु मान लिया है। कुछ दूसरे लोगों ने कहना शुरु किया कि यीशु मसीह के निकट रहने वाले उनके शिष्य कैफ़ा अर्थात पतरस को गुरु की गद्दी मिलनी चाहिए। कुछ लोगो ऐसे भी थे जो यीशु को गुरु कह रहे थे।

भक्ति अच्छी चीज़ है। यदि उद्धार पाना है तो कर्म-काण्डों, दान-चढ़ावे, तीर्थयात्राओं, पोथियाँ बाँचने से ऊँचा दर्जा है भक्ति का।

लेकिन क्या हर प्रकार की भक्ति अच्छी चीज़ है?

पौलुस का एक सीधा-सा सवाल था। क्या पौलुस ने तुम्हारे लिए जान दी? क्या क्रूस पर कैफ़ा चढ़े थे?

बात साफ़ है। जीवन में कई ऐसे लोग आएँगे जो आपको प्रभावित करेंगे। अच्छी बातें बताएँगे। जीवन को दिशा देंगे। दुःख-सुख में साथ देंगे। सहारा देंगे। लेकिन क्या इन्हीं बातों के कारण आप उन्हें अपना गुरु मान लेंगे? अपना अनंतकाल का जीवन उनके हाथ दे देंगे?

पौलुस कलीसिया को समझाना चाहते हैं कि उद्धार केवल यीशु मसीह के द्वारा ही संभव है, क्योंकि यीशु स्वयं परमेश्वर द्वारा बनाया गया मार्ग है। कोई भी मनुष्य चाहे वह कितना भी सिद्ध या "पहुँचा हुआ" क्यों न हो, परमेश्वर के पुत्र का स्थान नहीं ले सकता। कोई साधु, महात्मा, संत, उद्धार नहीं दे सकता।

उद्धार वही दे सकता है जिसने प्राण दिए। और वही गुरु बनने के, और आपकी भक्ति के योग्य है।


यदि भक्ति का केंद्र प्रभु यीशु नहीं है तो भक्ति एक आत्मिक छलावा बन सकती है।

Tuesday, 31 January 2017

दो कविताएँ

एक 

क्योंकि तुम जाग रही हो दुनिया के दूसरे कोने में
यहाँ मेरी नींद की चादर छोटी
नींद का बिस्तर छोटा
नींद की तासीर जैसे आधी रह गई
बदन के कुछ ही हिस्सों तक पहुँचती है नींद
और मैं अधूरे सपने ही देखता हूँ

आधी थकान बची रहती है

आधी थकान क्या तुम्हें सताती है
क्या तुम्हें भी आती है नींद अधपकी

दुनिया के दूसरे कोने में

(अगस्त 2008)


दो

लंबा है सफ़र
अटलांटिक गहरी नींद में पार करना
अतातुर्क एयरपोर्ट पे झपकी लेना
और सोते हुए चुन लेना
तस्वीरों के सिलसिले
किस्सों के लिए माकूल लफ़्ज़
लेकिन
पहुँचो घर तो
हैंडबैग से निकाल
मलना मेरी आँखों पर
सबसे पहले
अपने बीस दिनों के ख़्वाब

(अगस्त 2008)

Friday, 13 May 2016

समुदाय के केंद्र में वचन

जब पिछले साल मई के महीने में मैं इलाहाबाद पहुँचा तो अकादमिक सत्र बस समाप्त ही हो रहा था। मेरी पहली कुछ शामें डॉ. सैम हिगिनबॉटम की किताब द गॉस्पेल ऐंड द प्लाओ पढ़ने में बीतीं। यह किताब काफ़ी समय से मेरे पास थी लेकिन जब मैंने अंततः उस महान मिशनरी द्वारा स्थापित इस संस्थान को ज्वाइन किया तब मैं इसे पूरे का पूरा पढ़ पाया। किताब पढ़ने के बाद मैंने पाया कि यह अब तक की मेरी पढ़ी गई सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तकों में से एक है। मैं डॉ. हिगिनबॉटम की आत्मकथा से परिचित था लेकिन इस छोटी किताब में कुछ अनोखी ही बात थी और इसने मुझ पर गहरा असर डाला। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह एक महान पुस्तक है। इसकी लेखन शैली बहुत ही सरल और इसका संदेश बहुत ही गहरा। यह किताब लगभग सौ साल पहले में प्रकाशित हुई थी, लेकिन भारत की ज़रूरतों के लिए आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी 1921 में। यह प्रासंगिक इसलिए है क्योंकि यह किताब बहुत ही ताज़ा-तरीन ढंग से अपने लोगों के लिए परमेश्वर की इच्छा को प्रस्तुत करती है—व्यापक आशीषें।

जब परमेश्वर साढ़े तीन हज़ार साल पहले इब्रानियों को मिस्र देश की गुलामी से निकाल कर लाया तो उसने कहा कि वह उन लोगों को वाचा की भूमि में ले जाएगा—भूमि जहाँ दूध और मधु की धाराएँ बहती हैं (निर्गमन 3:17)। परमेश्वर ने ठाना था कि वह उन्हें मिस्र में उनकी शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार की गुलामियों से आज़ाद करवाए। और परमेश्वर चाहता था कि उन्हें शारीरिक और आत्मिक दोनों रीतियों से बरकत दे।

परमेश्वर की योजना में आत्मिक आशीषें और भौतिक समृद्धि साथ-साथ चलती हैं। चूंकि परमेश्वर हमारी शारीरिक और आत्मिक भूख की परवाह करता है, उसकी व्यापक आशीषों में हमारे शरीरों और आत्मा दोनों की गणना होती है।
जब सैम हिगिनबॉटम इलाहाबाद में आए तो उन्होंने सोचा था कि उनकी पहली ज़िम्मेवारी यीशु मसीह की इंजील अर्थात् सुसमाचार का प्रचार करना है, लेकिन गरीब काश्तकारों  और भूमिहीन मज़दूरों के हालात देख कर उन्हें परमेश्वर के व्यापक मिशन का बहुत ही सूक्ष्म दर्शन हुआ। जल्द ही उन्होंने समझ लिया कि उनके मिशन में गरीबों और भूख-प्यासे लोगों की देखभाल करना भी शामिल होगा; जल्द ही उन्होंने समझ लिया कि भारत को सुसमाचार के साथ-साथ किसानी की उन्नत तकनीकों की भी ज़रूरत है—भारत को गॉस्पेल एंड द प्लाओ (सुसमाचार और हल) दोनों की ज़रूरत है।

इस प्रकार एक कृषि संस्थान के महान स्वप्न ने जन्म लिया, ऐसा संस्थान जो भारत के दीनों को परमेश्वर के राज्य की आशीषों का उत्तराधिकारी बनने में सहायक होगा। साल 1910 में इलाहाबाद कृषि संस्थान की स्थापना हुई। इस परिसर में एक चैपल भी था जो इस बात को रेखांकित करता है कि सुसमाचार और किसानी साथ-साथ चलेंगे।

अब यह संस्थान सौ साल से पुराना हो चला है। अब यह डिग्री देने वाला मान्य विश्वविद्यालय बन चुका है। इलाहाबाद और उत्तर प्रदेश में यह प्रकाश स्तंभ की भांति खड़ा है। साल 2010 में विश्वविद्यालय के प्रबंधन ने बहुत ही समझदारी-भरा निर्णय लिया और विश्वविद्यालय का नाम इसके संस्थापक के नाम पर रख दिया। इलाहाबाद कृषि संस्थान आज सैम हिगिनबॉटम इंस्टिट्यूट ऑफ़ एग्रीकल्चर, टेक्नॉलोजी एंड सांइसेज़ के नाम से जाना जाता है। यह दुनिया को गवाही है कि सुसमाचार और हल की धर्मविज्ञान समाज के लिए क्या-क्या कर सकता है।

यह संस्थान डॉ. सैम हिगिनबॉटम की यादगार को ज़िंदा रखे हुए है। लेकिन उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात है कि यह उनके दर्शन को ज़िंदा रखे हुए है। और सौभाग्यवश, डॉ. सैम हिगिनबॉटम ने दो किताबें लिखी थीं जिसने इस कार्य को आसान कर दिया था।द गॉस्पेल एंड द प्लाओ तथा उनकी आत्मकथा सैम हिगिनबॉटम, फ़ार्मर: एन ऑटोबायोग्राफ़ी; 1949 दो ऐसे स्तंभ हैं जिन पर उनका दर्शन बहुत ही मज़बूती से टिका हुआ है।

कुछ लोगों को यह अतिशयोक्ति लग सकती है, लेकिन मेरा मानना है कि इन दो किताबों का लिखना इस संस्थान की स्थापना से किसी भी लिहाज़ से कम नहीं है। इस विश्वविद्यालय के वर्तमान मुखिया, आदरणीय कुलपति जी ने अकसर—निजी और सार्वजनिक तौर पर—डॉ. हिगिनबॉटम की इस लिखित विरासत के प्रभाव को स्वीकार किया है। इन दो किताबों ने मोस्ट रेव्ह. प्रोफ़ेसर आर. बी. लाल को मिले दर्शन का पुष्टीकरण किया और संस्था के नवीनीकरण के उनके इरादे को और मज़बूत किया।

दरअसल यह संस्थान हार्डवेयर था और जब इसमें सही सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया गया तो वह वाकई फलने-फूलने लगा।

वचन में ताकत है। और वचन को लिखने से वह ताकत आने वाली पीढ़ियों को भी हासिल होती है। जैसा कि पहले कहा गया, जब परमेश्वर इब्रानियों को गुलामी से छुड़ा ला रहे था, तो उसने उन्हें अपना वचन, अपनी आज्ञाएँ, अपने नियम दिए। और इन पुराने गुलामों को निर्देश दिया गया कि इन सबको लिख लें और अपनी अगली पीढ़ी को मीरास में दें। क्योंकि परमेश्वर की आशीषों को पाना और उन्हें बरकरार रखने के लिए छुड़ाए गए गुलामों को उन आज्ञाओं को मानना ज़रूरी था। मुक्त किए गए गुलामों से कहा गया कि अब उन्हें एक नए ढंग से अपने आपको संगठित करना है। उन्हें अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, कबीलाई और राष्ट्रीय जीवन को परमेश्वर के नियमों के इर्द-गिर्द बुनना है। उन्हें किसी व्यक्ति, राजा, आदर्श या प्रतिमा के नहीं बल्कि मूसा को मिले लिखित वचनों के आस-पास अपने आपको संगठित करना है। चूंकि आदि में वचन था (यूहन्ना 1:1), वचन को इस नए समुदाय के केंद्र में रखना होगा। संगठन का केवल यहीं ढंग सुनिश्चित करेगा कि उन्हें वे बरकतें मिलती रहें जिसका उनसे वादा किया गया है।

यह वह आज्ञा, और वे विधियाँ और नियम हैं जो तुम्हें सिखाने की तुम्हारे परमेश्वर यहोवा ने आज्ञा दी है, कि तुम उन्हें उस देश में मानो जिसके अधिकारी होने को पार जाने पर हो; और तू और तेरा बेटा और तेरा पोता यहोवा का भय मानते हुए उसकी उन सब विधियों और आज्ञाओं पर, जो मैं तुझे सुनाता हूँ, अपने जीवन भर  चलते रहें, जिससे तू बहुत दिनों तक बना रहे। हे इस्राएल, सुन, और ऐसा ही करने की चौकसी कर; इसलिए कि तेरा भला हो, और तेरे पितरों के परमेश्वर यहोवा के वचन के अनुसार उस देश में जहाँ दूध और मधु की धाराएँ बहती हैं तुम बहुत हो जाओ। (व्यवस्थाविवरण 6:1–3)

यह नियम नई ज़मीन पर उनके नए जीवन के लिए सॉफ़्टवेयर थे। और डॉ. हिगिनबॉटम की पुस्तकें संस्थान को फिर से नया करने का सॉफ़्टवेयर थीं। और संस्थान के विश्वासयोग्य सेवकों ने प्रार्थना और पवित्रशास्त्र को नज़दीकी से पढ़ने के द्वारा इस सॉफ़्टवेयर को एक्टीवेट किया। लिखित वचन—चाहे वह शास्त्र का हो या साक्षी की—उसमें ताकत होती है।
परमेश्वर ने हमें अपने स्वरूप में बनाया है (उत्पत्ति 1:26-27)। यीशु ने हमें परमेश्वर को पिता कहना सिखाया है (मत्ति 6:9) और कहा है कि पुत्र वही करता है जो वह अपने पिता को करते देखता है (यूहन्ना 5:19)। परमेश्वर लिखता है। हमें भी उसका लिखा वचन पढ़ना है। लेकिन उसका अनुकरण करते हुए हमें भी अपने स्वर्गीय पिता के समान लिखना है।

एक समुदाय के जीवन में लिखित वचन का क्या ही केंद्रीय स्थान है, तेजस्वी जीवन (रेडियंट लाइफ़) पत्रिका उसी का प्रतीक है। परमेश्वर ने जो विविध आशीषें यीशु दरबार के इर्द-गिर्द बने समुदाय को—बल्कि उससे भी आगे के समुदाय को—दी हैं, यह पत्रिका उनका लेखा रखने का प्रयास है। यह पत्रिका एक ऐसा मंच भी बनना चाहती है जो लेखकों, कवियों, इतिहासकारों को उनकी साक्षी सहेजने का मौका दे। पत्रिका विचारों के आदान-प्रदान में भी सहायक होने का प्रयास करती है जिससे मसीह यीशु के अनुयायी और मसीह की देह, अर्थात् कलीसिया मज़बूत हो—और यह आशा करती है जो-जो आशीषें वे प्राप्त करते हैं उनका लेखा रखे और उन्हें बढ़ावा दे।
पत्रिका का प्रकाशन कुछ अंतराल के बाद फिर से शुरू हो रहा है। और जब यह पत्रिका प्रेस में जा रही है तो यीशु दरबार के संस्थापक बिशप मोस्ट रेव्ह प्रो. आर. बी. लाल के जीवन के एक महत्त्वपूर्ण पढ़ाव  को पार कर रहें और अपना साठवां जन्मदिन मना रहे हैं। हम उनके लंबे और स्वस्थ जीवन की कामना करते हैं। इस अंक में शामिल किया गया उनका संदेश इसी बात की गवाह दे रहा है कि इस संस्थान के जीवन में प्रार्थना की महान सामर्थ्य और परमेश्वर के वचन का क्या महत्त्व है। हमारी प्रार्थना है कि हमारे पाठक परमेश्वर के इस दास के जीवन से प्रेरणा प्राप्त करें।

(संपादकीय, तेजस्वी जीवन, Vol 9, Issue 1)

  




Sunday, 20 September 2015

कौन पढ़ेगा, कैसे पढ़ेगा - सदियों से अनसुलझे कुछ सवाल


आज सोशल मीडिया पर एक साथी ने यह स्टोरी साँझा की।

एक वृतांत यह भी।

कल शाम को उत्तर भारत के मसीही समाज के प्रमुख अगुवे को सुनने का मौका मिला। इस समय एक बड़े ओहदे पर हैं। शाम को खाने के बाद प्रार्थना सभा के दौरान साथियों, सहकर्मियों, प्रशंसकों आदि के साथ अनौपचारिक बातचीत होने लगी। वह अपने बचपन की कुछ यादें ताज़ा कर रहे थे। उन्होंने बताया कि उनका घर उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े इलाके में था, हालांकि उसे शहर कहा जाता था। उनके पिताजी मिशनरी-पादरी थे और घर से बीस किलोमीटर दूर गाँव में एक कच्चे मकान में ही उनका अधिकतर समय बीतता था। वहाँ से वह आस-पास के गाँव में प्रचार का काम तुलनात्मक दृष्टि से कुछ आसानी से कर पाते थे और वहाँ ही एक स्कूल भी चलाते थे। बात 1960 के दशक की है। उस स्कूल में ज़्यादातर बच्चे अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्ग से संबंध रखते थे। इसका प्रमुख कारण था कि 1960 तक भी, यानी आज़ादी के पंद्रह से बीस साल तक, और उससे अधिक भी, पढ़ाने वाले मास्टरों का दिलो-दिमाग, विचार-विन्यास, विश्वदृष्टि जातिवाद और छुआछूत से आज़ाद नहीं हुई थी। सरकारी स्कूलों में जाने वाले दलित और पिछड़े वर्ग के बच्चों के लिए क्लासरूम किसी मानसिक यातनागृह से कम न था। "अरे चमार, तू कहाँ पढ़ना आ गया। जा जूते बना", "अबे अहीर की औलाद, दूध दोहना सीखा के नहीं।"। मास्टरजी की उन हिदायतों और सवालों से बचते ये बच्चे अकसर मिशनरी स्कूलों में आते थे। "मेरी स्कूल की शुरुआती पढ़ाई इन्हीं बच्चों के साथ हुई," इन जनाब ने बताया। "उन गाँव के कई हिस्से थे, जैसे कि कुएँ, इत्यादि, जहाँ से इन बच्चों और उनके माँ-बाप को गुज़रने की इजाज़त नहीं थी। हमारा परिवार पढ़ा-लिखा था, लेकिन क्योंकि हमारा उठना-बैठना इन बहिष्कृत लोगों के साथ था, हमारे आने-जाने पर भी लोग नाक-भौं सिकोड़ते थे।" साथ ही इस और भी इशारा किया कि इनकी पृष्ठभूमि भी इसी प्रकार विवादास्पद थी। "लेकिन चूंकि मैं पढ़ने-लिखने में तेज़ था, मैं स्कूल के बाद उत्तर प्रदेश के एक बड़े शहर में आ गया। पढ़ने-लिखने का सिलसिला अच्छा चल निकला और एक पीएचडी विदेश से भी कर ली। लेकिन पिताजी की एक बात याद रही। जब मैं अपने कालेज में मेरिट लिस्ट में स्थान पा गया तो अपने शहर की एकमात्र लाइब्रेरी से अख़बार लाकर पिताजी को दिखाया कि मेरा नाम भी इसमें है। पिता जी मुझे बाहर एक फल के पेड़ के पास ले गए। उन्होंने पेड़ की एक डाली की ओर इशारा कर के पूछा कि वह डाली इतनी क्यों झुकी हुई है। मैंने जवाब दिया कि क्योंकि उसमें सबसे अधिक फल लगे हैं। 'जितने फलो-फूलो, उतने ही नम्र और दीन बने रहो' उनकी यह शिक्षा मैं आज तक नहीं भूला। न ही यह भूला हूँ कि मेरे पादरी पिता ने अपने जीवन के पच्चीस साल हाशिए पर के लोगों की सेवा में लगा दिए।"

मिशनरियों और पादरियों का भारतीय समाज पर क्या ऐतिहासिक प्रभाव हुआ है इस बारे में लोकप्रिय स्तर पर कुछ खास काम नहीं हुआ है। अँग्रेज़ी में इतिहासकारों ने हाल के वर्षों में काफ़ी कुछ लिखा है, लेकिन हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में इस विषय में जानकारी बहुत कम है। खैर जॉन सी बी वेबस्टर की किताब "द पास्टर टू दलित्स" (दलितों का पादरी) में उद्धृत एक रिपोर्ट को देखा जाए। यह रिपोर्ट एक भारतीय मिशनरी-पादरी बरकत-उल्लाह साहब ने लिखी है, 1927 में । हिंदी अनुवाद के बात मूल अँग्रेज़ी भी दिया जा रहा है। बरकत-उल्लाह उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम तीन दशकों में उपजे "मिशनरी हेल्प सिस्टम" (सहायता तंत्र) की आलोचना कर रहे हैं लेकिन इसमें भी उस समय की सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक ज़रूरतों का अच्छा-खासा नज़ारा हमें मिलता है।

मिशनरी अपने [दलित] लोगों के माई-बाप थे, हर मुद्दे पर उनकी मदद करते, जब भी और जहाँ भी उनकी मदद की दरकार होती। अगर कोई साहूकार मसीहियों को धमकाता तो वे मिशनरी के पास जाते, जो हमेशा अमीरों के खिलाफ़ गरीबों को बचाने को तैयार रहता था। अगर ज़मींदार अपने मसीही मज़दूरों को उनके हक का पैसा नहीं देता था तो, मिशनरी की मदद ली जाती थी। अगर पुलिस मसीही गाँववालों से बदसलूकी करता था मिशनरी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करता था और पुलिस को सबक सिखाया जाता था कि मसीहियों को तंग न करे ... अगर कोई मामूली सरकारी कर्मचारी गाँव के मसीहियों से बेगार करवाना चाहे तो मिशनरी उन्हें काम करने से मना करता था और ऐसे मामलों को उच्चाधिकारियों तक पहुँचाता था। संक्षेप में, मिशनरी ने यह ज़िम्मेवारी ले ली कि जितना हो सके वह सुनिश्चित करे कि मसीहियों की कोई हानि न, उनका उत्पीड़न न हो, कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती न हो, किसी किस्म की कोई नाइनसाफ़ी न हो।

The missionaries were The mai bap of their people, helping them in all matters, whenever and wherever their help was required. If a money-lender threatened Christians, they went to the missionary who was ready to help the poor against the rich; if a zamindar gave less to his Christian hands than was their due, the missionary's help was requisitioned; if the police maltreated Christian villagers, the missionary used his influence and the police were taught the lesson of letting Christians alone ... If petty Government officials wanted  begar (forced labour) from village Christians, the missionary prohibited them from working and reported such cases to high officials. In short, the missionary made it his business, as far as lay in his power, to see that no harm, or oppression, no tyranny, no injustice of any kind, should come near his Christians.
[(Barkat Ullah, "An Aspect of the Mass Movement Problem in the Punjab," National Christian Council Review [May 1927], 292–293); cited in John C. B. Webster, The Pastor to Dalits, New Delhi: ISPCK, 1995, pp. 10–11.]

Monday, 10 December 2012

जब्बार पटेल कृत ‘डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर’: महामानव को वश में करने का प्रयास



‘‘भारत तो गाँधी को पीछे छोड़ अंबेडकर की ओर अग्रसर हो चुका है...’’ यह बात कोई 17 साल पहले अरुण शौरी को लिखे एक पत्र में विशाल मंगलवादी ने कही थी। शौरी ने हाल ही में एक पुस्तक प्रकाशित की थी, ‘मिशरनीज़ इनं इंडिया: कंटीन्यूटीज़, चेंजिज़ एंड डिलेमाज़(1994) जिसमें उन्होंने उन ईसाई मिशनरीयों की विध्वंसकारी आलोचना प्रस्तुत की थी भारत में जिन्होंने औपनिवेशक काल में भारत में सेवा की थी। गाँधी के प्रशंसक और अनुयायी, अरुण शौरी अपने आदर्श के समान ही मिशनरीयों, धर्मांतरण और दलितों के उत्थान के विरुद्ध हैं। उपरोक्त पत्र फ़रवरी 1995 में लिखा गया था। उस समय तक कांशीराम की बसपा उत्तर भारत में एक बड़ी शक्ति के रूप में उभर चुकी थी। मंडल आयोग रपट के आस-पास हो रही बहसों और चर्चाओं के चलते पाँच वर्षों में अंबेडकरवाद का आकर्षण बढ़ता जा रहा था। मानो पत्र में कही बात का प्रतिवाद करने के लिए ही, और गाँधी को वापिस स्थापित करने के लिए, शौरी ने अपनी अगली किताब अंबेडकर पर हमला करते हुए लिखी, ‘वरशिपिंग फ़ॉल्स गॉड्स: अंबेडकर, एंड द फ़ैक्ट्स विच हैव बीन इरेज़्डजो 1997 में प्रकाशित हुई। शौरी जो करना चाहते थे क्या उसमें वह सफल हुए?

कुछ महीनों पहले, उपरोक्त पत्र के श्री शौरी तक पहुँचने के करीब 17 सालों बाद, भारत का मुख्यधारा का मीडिया और भारतीय मध्य वर्ग इसी सच्चाई से अवगत हुआ, जब ग्रेटेस्ट इंडियन आफ़्टर गाँधी का परिणाम सामने आया। अंबेडकर नेहरु और कई दूसरी लोकप्रिय शख्सियतों से कहीं आगे थे। कितने ही लोग यह मानते थे कि अगर गाँधी खुद इस चुनाव का हिस्सा होते तो वह भी नंबर 2 पर ही रहते। अंबेडकर का राष्ट्रीय योगदान क्या है, इस प्रश्न पर हमारी आधिकारिक पाठ्यपुस्तकें यही कहती रहीं कि वे तो मात्र ‘‘भारतीय संविधान के जनक हैं’’ लेकिन कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों में मौजूद गाँधीवादी राष्ट्रवादी अंबेडकर कीी बढ़ती लोकप्रियता को रोक नहीं सके। मुख्यधारा मीडिया और हमारे सांस्कृतिक जीवन में अंबेडकर का यूँ उभर कर आना गाँधीवाद और सामाजिक एव राजनैतिक दर्शन के गाँधीवादी दृष्टिकोण के लिए गंभीर खतरा बन रहा है। लेकिन क्या वाकई में?

जब्बार पटेल की फ़िल्म डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर(2000) को याद करते हुए इस संदर्भ को ध्यान में रखना फ़ायदेमंद होगा। अंबेडकर पर कोई भी चर्चा आज नहीं तो कल गाँधी की ओर भी मुड़ेगी, जो अंबेडकर के बुज़ुर्ग समकाली थे और सामाजिक एवं राजनैतिक रूप से उनके प्रतिद्वंद्वी। जब रिचर्ड एटनबरो ने 1982 में गाँधीफ़िल्म का निर्माण किया तो उसमें अंबेडकर का कोई ज़िक्र नहीं था। गाँधीवादी इस छलावे में रह सकते थे कि अंबेडकर को आसानी से भुलाया जा सकता है। लेकिन अंबेडकर और उनकी धरोहर जीवित थी, बल्कि फल-फूल रही थी। और जब 1991 में अंबेडकर की जन्म शताब्दी नज़दीक आने लगी तो उन पर भी एक विस्तृत फ़िल्म के निर्माण की माँग उठने लगी।

करीब 12 साल पहले रिलीज़ हुई यह फ़िल्म गुणवत्ता की दृष्टि से बेशक बेहतरीन है। तकनीकी रूप से बहुत ही उमदा। आखिरकार जब भारतीय सिनेमा के बड़े-बड़े नाम एक शाहकार का निर्माण करने एक साथ आते हैं तो उनसे ऐसी उम्मीद तो की ही जा सकती है। भानु अथैया, श्याम बेनेगल, ममूटी, अशोक मेहता सब जब्बार पटेल की मदद के लिए मौजूद थे किस तरह से ऐतिहासिक रूप से विश्वसनीय जीवनी आधारित फ़िल्म बनाई जाए तो सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से आकर्षक भी हो।

लेकिन गाँधी को यह फ़िल्म कैसे देखती है? यह सच है कि फ़िल्म गाँधी का कुछ उपहास करती है, उन्हें तेज़-तरार्र लेकिन ज़िद्दी व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करती है जो अंतत: एक दयालु नैतिक तानाशाह है, और जो नेहरु को मना लेता है कि वह अंबेडकर को अपने पहले कैबिनेट में शामिल कर लें। लेकिन, गाँधी का मज़ाक उड़ाना या उपहास करना किसी भी फ़िल्मकार या किसी लेखक द्वारा उठाया कोई क्रांतिकारी कदम नहीं कहा जा सकता। गाँधी ने तो खुद अपने साथ ऐसा किया था, मिसाल के तौर पर उनकी आत्मकथा में। वैसे भी, लोकप्रिय धारणाओं के विपरीत, हम भारतीयों के लिए अपने महान नेताओं की, यहाँ तक की देवताओं, की सनक या पागलपन बल्कि उनकी नैतिक कमियाँ भी कोई खास समस्या पैदा नहीं करतीं।

हाल ही में, सांसद और हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा के सदस्य राम जेठमलानी ने एक विवादास्पद बयान दिया था कि राम एक बुरे पति थे और इसलिए वह राम को पसंद नहीं करते। भोले-भाले लोगों को यह सोचने के लिए क्षमा किया जा सकता है कि यह कोई हिंदू विरोधी बयान था। लेकिन राम जेठमलानी दरअसल एक अच्छे और संपूर्ण एवं आधुनिक हिंदू के रूप में सामने आ रहे थे। हिंदू धर्म निश्चित रूप से यह आज़ादी देता है कि अपने देवताओं से ठिठोली करो, यहाँ तक कि उनका मज़ाक भी उड़ाओ। राम जेठमलानी अपनी उस पार्टी में बने रहेंगे जो राजा राम, योद्धा राम, भाई राम, पुत्र राम, क्षत्रिय राम से प्रेरणा लेती है चाहे उसे पति राम से कुछ छोटी-मोटी समस्या रही हो। ऐसा इसलिए क्योंकि हिंदू धर्म अपने देवताओं से संपूर्ण नैतिक शुचिता या प्रवीणता की आशा नहीं रखता। यह बिलकुल मुमकिन है कि आप एक अच्छे राम भक्त बने रहें और राम की किसी नैतिक कमी की शिकायत भी करते रहें। इसी प्रकार, गाँधी की शख्सियत के किसी एक पहलू पर बहसबाज़ी करते हुए भी आप एक कट्टर गाँधीवादी बने रह सकते हैं।

इसलिए जब्बार पटेल गाँधी का मज़ाक उड़ा सकते हैं लेकिन आखिरकार दिखाया यही गया कि आगे बढऩे के लिए अंबेडकर गाँधी की उदारता के ही मोहताज थे। यह फ़िल्म सटीक उदाहरण है कि किस तरह ब्राह्मणवाद ने अंबेडकर को राष्ट्रवादी नेताओं के नव-हिंदू देवसमूह में, लुई द्यूमॉन्त के विचार के अनुसार, शामिल करके उन्हें श्रेणीबद्ध कर दिया है।

वह फ़िल्म जो अंबेडकर के जीवन और विचारों के अनूठेपन को रेखांकित करना चाहती थी उसे इस बात पर ज़ोर देना चाहिए था कि किस प्रकार भारत की डिप्रेस्ड क्लासिज़ की समस्याओं का निदान और उपचार गाँधी के हरिजन उद्धार से अलग था।

फ़िल्म के इस बुनियादी असर का एहसास मुझे हुआ जब बहुजन पृष्ठभूमि के छात्रों के एक छोटे समूह से बात हो रही थी और अचानक से इस फ़िल्म का ज़िक्र आया। चूंकि हम सबने बहुत पहले यह फ़िल्म देखी थी, इन छात्रों को एक बात जो बड़ी सफ़ाई से याद थी वह यह कि गाँधी कितने भले थे जो अंबेडकर को अपने साथ ले आए!

यह फ़िल्म कोई अलग बात नहीं कहती सिर्फ़ अंबेडकर के लिए एक जगह तलाश लेती है, उन दरारों में जो भारतीय राष्ट्रवाद के महावृत्तांत में समय बीतने के साथ नज़र आने लगीं थीं। और इस तरह से यह उस दरार को भर भी देती है। यह फ़िल्म व्यापक राष्ट्रवादी विन्यास के अनुरूप है जहाँ अंबेडकर के लिए जगह बनेगी तो गाँधी के अनुपूरक के रूप में उनके विकल्प के रूप में नहीं।

अगर राजनीति से कोई संकेत मिलता है तो, भारत ज़रूर गाँधी से आगे अंबेडकर की ओर बढ़ा है। लेकिन सांस्कृतिक और कलात्मकता के क्षेत्रों में अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना है।

 (फॉरवर्ड प्रेस के दिसंबर 2012 अंक में प्रकाशित लेख का हलका संशोधित संस्करण)