Tuesday, 2 September 2008

पहचान का संघर्ष पुराना है

मसीही समुदाय, या जिसे मसीही कलीसिया भी कहा जाता है, के आरंभिक दिनों में पहचान का मुद्दा एक घोर संघर्ष बन कर यीशु के शिष्यों के सामने था। पौलुस जो पहले शाऊल नामक फ़रीसी थे को यह लगता था कि यहूदी धर्मशास्त्रों के बारे में उनकी समझ में कोई त्रुटि नहीं। नासरत निवासी यीशु के शिष्य प्राचीन एवं महान यहूदी धर्म में मिलावट कर रहे हैं तथा उनकी महान पहचान को चोट पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके लिए कलीसिया का दमन करना अपनी पहचान को बचाए रखने का एकमात्र रास्ता था। परंतु यीशु के शिष्यों के लिए भी अपनी यहूदी विरासत का घमंड छोड़ना कोई आसान काम नहीं था। इब्रानी राष्ट्र के प्रत्येक जन के मन में यह बात घर कर गई थी कि वे विशिष्ट हैं, परमेश्वर के चुने हुए लोग हैं। इस बोध के साथ दूसरी जनसमूहों, राष्ट्रों और जातियों को तुच्छ जानना भी उनकी अपनी पहचान का हिस्सा था। पतरस को प्रभु ने एक दर्शन के द्वारा विशिष्ट और तुच्छ, शुद्ध और अशुद्ध के भेद को त्यागने का आदेश दिया। पतरस को यह सीखना था कि परमेश्वर की संपूर्ण कृपा गैर-यहूदियों पर भी बिना किसी हिचक और अंतर के होती है। हालांकि इस्राएल राष्ट्र रोमी साम्राज्यवाद का उपनिवेश था और शासक एवं शासित के बीच बहुत तनाव था फिर भी पतरस को कुरनेलियस नामक रोमी सेनापति को कलीसिया का हिस्सा स्वीकार करना था। इसी प्रसंग को लेकर कुछ दोहे

कौन पराया आपना का है शुद्ध अशुद्ध
प्रभु की किरपा सब पर है तू होता क्यों विरुद्ध

प्रभु की किरपा सबको है सबको प्रभु आनंद
खोल खिड़कियां दरवाज़े तू बैठा क्यों बंद

जिसको नीचा माने है उस पर भी किरपा होवेगी
मानव सीमा प्रभु न जाने किरपा की बरखा होवेगी

2 comments:

Asha Joglekar said...

Dhanyawad ise padhane ka.

प्रदीप मानोरिया said...

कौन पराया आपना का है शुद्ध अशुद्ध
प्रभु की किरपा सब पर है तू होता क्यों विरुद्ध
सुंदर कृपया पधारे
http://manoria.blogspot.com and http://kanjiswami.blog.co.in