Thursday, 6 July 2017

गुरु की भक्ति बनाम प्रभु की भक्ति

यदि भक्ति का केंद्र गड़बड़ है तो भक्ति एक आत्मिक छलावा बन सकती है।

महान मसीही प्रचारक संत पौलुस ने अपनी दूसरी मिशनरी यात्रा के दौरान यूनान देश के कुरिंथुस शहर में मसीही कलीसिया की स्थापना की। यह लगभग 50 या 51 इस्वीं की बात है। छोटी-छोटी कलीसियाओं (यानि विश्वासियों की मंडली) की स्थापना के बाद पौलुस उनसे संपर्क में रहते थे, उनके साथी-सहयोगी इन कलीसियाओं में आते-जाते रहते थे और पौलुस ख़ुद भी चिट्ठी-पत्री के द्वारा उनसे बातचीत करते रहते थे। यह चिट्ठियाँ नए उभरते मसीही समुदाय का आधार बनीं। और आने वाले समय में मसीही धर्मशास्त्र अर्थात् बाइबल का अभिन्न और महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गईं।

कुरिंथुस या कोरिंथ में कलीसिया की स्थापना के तीन-चार साल बाद पौलुस ने इस कलीसिया को भी पत्र लिखा। इनके सुनने में आया की उस कलीसिया में जिसकी नींव का पत्थर स्वयं प्रभु यीशु है वहाँ एक ज़बरदस्त भक्ति आंदोलन चल रहा है।

पौलुस ने सुना की वहाँ कि मंडली में गुरुवाद का भारी प्रचलन हो चला है। कुछ लोगों ने पौलुस को अपना गुरु कहना शुरू कर दिया, कुछ लोगों ने पौलुस के मित्र और सहयोगी अपुल्लोस को गुरु मान लिया है। कुछ दूसरे लोगों ने कहना शुरु किया कि यीशु मसीह के निकट रहने वाले उनके शिष्य कैफ़ा अर्थात पतरस को गुरु की गद्दी मिलनी चाहिए। कुछ लोगो ऐसे भी थे जो यीशु को गुरु कह रहे थे।

भक्ति अच्छी चीज़ है। यदि उद्धार पाना है तो कर्म-काण्डों, दान-चढ़ावे, तीर्थयात्राओं, पोथियाँ बाँचने से ऊँचा दर्जा है भक्ति का।

लेकिन क्या हर प्रकार की भक्ति अच्छी चीज़ है?

पौलुस का एक सीधा-सा सवाल था। क्या पौलुस ने तुम्हारे लिए जान दी? क्या क्रूस पर कैफ़ा चढ़े थे?

बात साफ़ है। जीवन में कई ऐसे लोग आएँगे जो आपको प्रभावित करेंगे। अच्छी बातें बताएँगे। जीवन को दिशा देंगे। दुःख-सुख में साथ देंगे। सहारा देंगे। लेकिन क्या इन्हीं बातों के कारण आप उन्हें अपना गुरु मान लेंगे? अपना अनंतकाल का जीवन उनके हाथ दे देंगे?

पौलुस कलीसिया को समझाना चाहते हैं कि उद्धार केवल यीशु मसीह के द्वारा ही संभव है, क्योंकि यीशु स्वयं परमेश्वर द्वारा बनाया गया मार्ग है। कोई भी मनुष्य चाहे वह कितना भी सिद्ध या "पहुँचा हुआ" क्यों न हो, परमेश्वर के पुत्र का स्थान नहीं ले सकता। कोई साधु, महात्मा, संत, उद्धार नहीं दे सकता।

उद्धार वही दे सकता है जिसने प्राण दिए। और वही गुरु बनने के, और आपकी भक्ति के योग्य है।


यदि भक्ति का केंद्र प्रभु यीशु नहीं है तो भक्ति एक आत्मिक छलावा बन सकती है।

2 comments:

Deepak Ransom said...

All humanity is morally infected/sick and spiritually paralysed. We as a race have undergone a massive spiritual turbulence that has rendered us spiritually and morally impotent. There has been a total collapse of the spiritual-moral system. Atlas has not only shrugged, he has utterly dehydrated and collapsed. No one from within has shoulders that can carry another out of his eternal and dammed condition. A 'guru' is also in need of someone from outside - The Guru - that Christ alone is. It is interesting that Paul, who was in an advantageous position to claim to be one such Atlas, declared just the opposite and consistently and emphatically pointed to The Guru and His cross. True bhakti is embracing the Guru, not becoming one. And a false one at that! Thanks so much for sharing.

Sushant Das said...

Thanks Ashish for the post and for some reminders.

If we look at our land and the proliferation of Babas we see that not much has changed regarding human nature in the last 2000 years. It seems that we humans have a need to follow, or be Bhakts of, somebody charismatic. Living in a world where numbers is the measure of right and wrong, the more Bhakts you have the better or more “right” leader you are.

It is difficult to imagine that Paul, Peter and Apollos were teaching wrong or contrary doctrines of salvation. Paul does not seem to level any such accusation against the others. In asking the question, if Paul was crucified for them, he is telling them that only doctrines are not enough, it is important also to trust your experience of the one who has died for you.

But does experience ensure the right ‘bhakti’? Apparently not. As Galatians 3 reminds us, even after experiencing the Spirit they were led astray to rely on human effort for salvation! The weakness of our human nature is such a constant thing.

Don’t I then sorely need God’s grace?

Right doctrines and experience are surely foundations for ‘bhakti’. But it is only by the grace of God can one deny himself and take up one’s cross daily to be a ‘bhakt’.